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________________ ५०० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'संति जिणवर संति जिणवर, जिणवर सकल सुखकर, पंचम चकेसर पवर संतिकरण, सवि दुरिय दुखहर । इत्यादि अन्तिम पंक्तियों में रचनाकाल इस प्रकार दिया गया है 'संति विमल श्री पासइ, कीधउं चरित्र रसालो रे, सोल नडोत्तर श्रवण मासहि, सुणज्यो पुण्य विशालो।' इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि आप मरुगुर्जर भाषा के एक उत्तम कवि हैं। आपने अनेक प्रसिद्ध महापुरुषों के चरित्र पर आधारित चउपइ, रास आदि सरस रचनायें की हैं। आपकी भाषा शैली काव्य लेखन के लिए समर्थ और सरस है। ___ आपकी कतिपय लघु कृतियां जैसे चित्रभूतिकुलक, इलापुत्रकुलक आदि की हस्त प्रतियाँ सं० १६५३-५४ की प्राप्त हैं । समयोल्लेख सहित इनकी रचना नलदमयन्तीरास सं० १६१४ की लिखित प्राप्त है इसलिए उक्त दोनों रचनायें भी इसी के आसपास की होंगी। अतः वाचक विनयसमुद्र की रचना अवधि सं० १६१४-१५ तक स्वीकार की गई है ।' आप १६ वीं एवं १७ शताब्दी की संधि के महाकवि हैं। विशालसुन्दर शिष्य -इस अज्ञात कवि की रचना 'सत्तरिसयजिनस्तव' ( ६४ गाथा) ज्ञात है। इस कृति के लिए कवि श्री विजयदानसूरि की कृपा के प्रति आभार व्यक्त करता हुआ कहता है : 'श्री तपागछइ दीपइ सुविहत मुनि समवाय, सम्प्रति यति नायक श्री विनयदान सूरि राय । तस चरणि प्रसादिई, सत्तरि सयजिन नाम, इस समरण करतां सीधां सधलां काम । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार है : 'समरी सरसति भगवति वाणी, निज गुरु भगति चिंति जाणी। एक सउत्तरि श्री जिन नाम, समरि समरि करता सप्रणाम । 'श्री विशालसुन्दर सगुरु सेवक कह इ अविचल पदभणी, मुझ हूज्यो भवि भवि कुशल कारणी. सेवो श्रीजिणवरतणी।६४६ यह जिन भक्ति सम्बन्धी सामान्य रचना है। १. डा. क० च० कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत, पृ० २१३-२१४ २. श्री मो० द. देसाई-जै० गु० क०-भाग ३, खंड २, पृ० १५०१. अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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