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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य ४९१ पर पार्श्वचन्द्रसूरि के साथ ही विचार उचित है । आराधनामोटी, आराधनानानी, आराधनासंक्षेप नामक कई आराधना संज्ञक रचनाओं का संक्षिप्त परिचय पार्श्वचन्द्रसूरि के साथ पहले दिया जा चुका है । विजयदेवसूरि - आप पुण्यरत्न के शिष्य थे । आपके पिता चाहडशाह जोधपुर के समीपवर्ती अरुणनगर निवासी ओसवाल वैश्य थे । आपकी माता का नाम चांपल देवी था । आपका जन्म का नाम वरदराज था । आपने बाल्यावस्था में ही पार्श्वचन्द्र से दीक्षा ली और विद्याभ्यास हेतु ब्रह्मऋषि के साथ दक्षिण देश चले गये । इन्होंने विजयनगर की राजसभा में दिगम्बर पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया और महाराजा विजयनगर द्वारा ही इन्हें 'सूरि' पद प्रदान किया गया। बाद में ये जोधपुर आये और पार्श्व चन्द्र इन्हें विधिवत् सूरि पद प्रदान किया । खंभात में जाकर ये रोगग्रस्त हुए और ब्रह्मऋषि को विनयदेवसूरि के नाम से सूरि पद प्रदान कर स्वर्गारोहण किया । रचनायें – आपने 'शीलरास' (शीलप्रकाशरास ) की रचना जालौर में की। इस रास में नेमिनाथजी की प्रशस्ति है । अतः इसे नेमिनाथरास या शीलरक्षाप्रकाशकरास आदि कई नामों से अभिहित किया गया है । इस का प्रारम्भिक पद्य निम्नांकित है पहिलउं प्रणाम करउं जिनराय, लागु जी गोतम गणधर पायं, सद्गुरु वाणी वली सांभलउ, भूलउ जी अक्षर आणिज्यो ठाई । रास भणिसु रलियामणउ, जे सुण्या सील हियइ थिर थाई कोकिला जिम कलिरवि करइ, मास वसंत जिम अंब पसाई कि, कंइशील अखंडित सेवज्यो ।' १ | इसमें शील के महत्त्व की चर्चा करता हुआ कवि कहता है'सिगली नारी न चंचल होई, पुरुष सवे भला मत कहा कोई, सही सरखी नही अंगुली, चउ वरणे गुण सारिखा संती । पुरुषह के पर स्त्री रमइ, हसी हसी परि घरि पाय ठवंती । पगतली मरण न पेखइ. हाथ दीवीलयइ कूप पडती । 2 १. श्री मो० द० देसाई – जे० गु० क० - भाग १, पृ० १४८ - १५० और भाग ३ पृ० ५९६ २. श्री अ० च० नाहटा — परम्परा, पृ० ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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