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मरु - गुर्जर जैन साहित्य
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वासण - आप तपागच्छीय आचार्य विजयदानसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५९७ में 'आनन्दविमलसूरिरास' की रचना की । यह ऐ० रा० सं० में प्रकाशित है । इसमें आनन्दविमलसूरि का चरित्र चित्रित है, सारांश नीचे देखिये । इसका प्रारम्भिक छंद इस प्रकार है :
'सकल पदारथ पामीइ, जयंता श्रीजिननाम | प्रथम तिथेसर ध्याइइ ऋषभजीकरू प्रमाण | 2
इसके अन्त की पंक्तियों में पाठान्तर मिलता है, यथा :'श्री आनन्दविमलसूरिसरु तस पटोधरपवित्त,
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श्रीविजयदानसूरि गुणनिलु, वासण प्रणमि, अ आणी नरमलचित्त । " दूसरी प्रति में इसका रचनाकाल 'साधुगुणरत्नमालरास' के नाम से बताया गया है
संवत पनर सताणुइ, आसो आक्षूर आलोमास साधनाम गुणरत्नमाल ओ रास,
रचता ओ मननई, अति उलास उल्लास ।
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अइवंता अजमान वरु श्रीविजयदान सूरींद, भटारक राजविजय सूरि कहे वासणप्रण आनंद । १६० । ३
आपकी दूसरी रचना 'आदिनाथरत्त' २१ कड़ी की लघु कृति है । इस पर संस्कृत में टीका की गई है। इस छोटी सी मरुगुर्जर की रचना के लिए संस्कृत में टीका गौरव की बात है । इसकी दो प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये --
पहिलू पणमिय देव परमेसर सेज धणिय,
पय पंकज रम सेव, रंगिहि वि वसु तसु तणीय ।
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इसकी अन्तिम पंक्तियों में कवि का नाम इस प्रकार आया है :
'सेवय सभासुर थुणिय भासुरगुरु वभासुर गंजणो, मह सुविहि वासण देउ सासण विजयतिलउ निरंजणो । '
१. देसाई - जे० गु० क० - भाग १, पृ० १६८
२. ऐतिहासिक रास संग्रह - आनन्दविमलसूरि रास, पृ० ८५-८६ ३. देसाई - जै० गु० क० - भाग १, पृ० १६८
४. देसाई - जै० गु० क० - भाग ३, पृ० ६२४
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