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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसकी भाषा शैली भी वाद्यों की भाषा शैली के मेल में है। यदि ये दोनों कवि एक ही व्यक्ति हों तो वाछो या वच्छभंडारी की चार कृतियाँ उपलब्ध हैं जिनके आधार पर वे मरुगुर्जर के एक श्रेष्ठ कवि प्रमाणित होते हैं।
वरसिंह-वीरसिंह-आपने सं० १५६९ से पूर्व 'ऊषाहरण' नामक काव्य लिखा। इसे श्री भोगीलाल सांडेसरा ने सम्पादित करके फार्वस गुजराती सभा के मुखपत्र (सन् १९३६ से ३८ तक के अंक) में प्रकाशित किया है । वरसिंह संभवतः जैनतेर लेखक थे, किन्तु ऊषाहरण की प्रतिलिपि के लेखक रत्नमेरु जैन थे और इसकी प्रति जैन-भंडारों में सुरक्षित हैं तथा इसकी भाषा मरु-गुर्जर है। अतः इसे मरुगुर्जर साहित्य के अन्तर्गत लिया जाना समीचीन है। इसमें विष्णु के अवतार श्री कृष्ण के वंशज अनिरुद्ध और वाणासुर की कन्या ऊषा के विवाह की रोचक कथा का वर्णन किया गया है। इसके प्रारम्भ में कवि ने माँ सरस्वती की वंदना की है और इसके श्रवण का फल संचित पापों का नाश बताया है। इससे संबन्धित पंक्तियाँ देखिये :--
'प्रणमसि सारद वरद विसेसि, वाणी विमल दिउमुझरेशि, निघटस नवरस कथा संमध, प्राकृतपइं चुपै पिंड बंध ।१। शामा श्रोणितपुरीयमंझारि, रा वाणासुर तणीय कुमारि, चिंतित वरवंछि मनमांहि, रचिस कवित हैं तीणइ ठाहि उषा हरार्ण सणि फल अह, श्रवणि हृदयलि नवरस मेह,
संचित पाप अंगना जाइ, नीयडाज्वर अकवीस न थाइ। इसमें मुख्यरूप से चौपाई छन्द का प्रयोग हुआ है, इसके अलावा अन्य कई छंदों और रागरागिनियों का भी यत्र-तत्र प्रयोग किया गया है। घुल सन्यासी राग में बद्ध एक गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिये :
'बुहारीय छंडीय बाट, बाँधी यि परीयट पाट, मंडपि उभोय शणगारी वि हाट, अबला शरि उढ़या घाट । आठमिइं अवतारि, कंसमाला षाडिमारि, बलितणु वाणासर मनावय हारि । यादवबिंश वधारि, सोल सहस्र नारि,
वरसिंग भणइ द्वापर युग मंझारि ।५०२।' १. श्री देसाई--० गु० कवि-भाग ३, खण्ड २ पृ.० २१२१ २. वही
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