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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४८७ इसमें नाना प्रकार के राग, छंद और देशी लयों का प्रयोग किया गया है। इनकी तीसरी रचना 'चिहुंगतिवेलि' है, जिसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैंआदि- आदि देव अरिहंत तूं, आदीश्वर अवधारि,
चउ गइ पारन पामी अ, भवसागर भयवारि । कुगुरु कुदेव कुधर्म हूअं, रल्यु अनंताकाल,
तू अविहड मइं पामीउ, जयगुरु देवदयाल ।' अन्त- त्रिणि काल जिनपूजा कीजइ, सुगुरु कहीजइ आण ।
भवीअण श्री जिनधर्म कहतां, पामीसइ कल्याण । चिहुंगतिनी अ वेलि, विचारी जे पालइ जिन आण,
तेहनाचरण-कमल नइ पसाइ, हूं वाळू गुणठाण ।१४२।'' इनकी मरुगुर्जर भाषा पर गुजराती का प्रभाव पर्याप्त है ।
वच्छभण्डारो—ये भी श्रावक कवि हैं और देपाल के समकालीन हैं। श्री देसाई का अनुमान है कि वाछो और वच्छभंडारी एक ही व्यक्ति हैं। बच्छभडारीकृत 'नवपल्लवपार्श्वनाथकलश' प्रकाशित रचना है। यह मंगरोल मे लिखी गई किन्तु इसका रचना काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। यह देपाल कवि क स्नात्रपूजासंग्रह के साथ प्रकाशित है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
श्री सौराष्ट्र देशमध्ये श्री मङ्गलपुरमंडणो, दुरितविहडंणो, अनाथनाथ असरण सरण त्रिभुवन जनमन रंजनो।
२३ मो तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ तेह तणो कलश कहीशु ढाल 'हा रे वाणारसी नयरी वसेय अनुपम उपम अवदाधार,
तिहां वापी सरोवर नदीयकूप जल वनस्पति भार अढार, तिहां गढ़ मढ़मंदिर दिस अभिनव, सुन्दर पोलि प्राकार,
कोसीसा पाखल फिरति खाइ, कोटे विसमां घाट ? भिन्न-भिन्न प्रतियो में इसकी अन्तिम पंक्तियाँ भिन्न-भिन्न रूप में मिलती हैं। इसके अन्तिम पंक्तियों का एक पाठ आगे दिया जा रहा है :
'इम भणे वच्छभंडारी निजदिन अम मन ओ अरिहंत,
अहेवा नीलवरण नवरंग जिनेसर, जयो जयो जयवंत ।' १. श्री देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० ५०० २. वही
भाग १, पृ० ६६
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