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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सुभद्रा आदि के समकक्ष इसके चरित्र को पवित्र बताया है। इस रास की भाषा शैली के उदाहरणार्थ इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ दी जा रही हैं
'गोयम गणहर पयनमेवी, बहु बुद्धि लहेसु, मगांकलेखा सतीय चरित्र, मनि सुद्धि कहेसु । सीलइ सरोमणी गुणि निलुमे, मनि मान न आणंइ,
मनसा वाचा काय करी, ते सील बषाणइ ।' इस रास में रचना काल लिखने के पूर्ण वाछो कवि ने 'जीवभवस्थिति रास' का नामोल्लेख किया है, यथा
'तास वयण सुणिआं मन सुद्धि, तीणइं बुद्धि हुइ प्रकाश,
कीउ उपगार तणी मति, जीवभवस्थिति रास ।२८।। इस उद्धरण से ज्ञात होता है कि यह सूचना केवल 'जीवभवस्थितिरास' के सम्बन्ध में है किन्तु श्री देसाई जी का अनुमान है कि उक्त रचना तिथि दोनों कृतियों के सम्बन्ध में है । यदि यह अनुमान ठीक हो तो दोनों रचनायें सं० १५२३ में लिखी गईं, अन्यथा यही कहा जा सकता है कि मृगांकलेखाचरित्र सं० १५४४ से पूर्व और जीवभवस्थितिरास सं० १५२३ में लिखी गई। इसका पूरा नाम 'जीवभवस्थिति-सिद्धान्तसार-प्रवचनसाररास' दिया है। श्री देसाई ने पहले तो इसे ज्ञानसागरसूरि शिष्यकृत कहा किन्तु जै० गु० क० भाग ३ में उन्होंने इसे स्पष्ट रूप से ज्ञानसागर के शिष्य वाछो की रचना स्वीकार किया है। जीवभवस्थितिसार की ईडरबाइयों के भंडार से प्राप्त प्रति के अन्त में रचनाकाल सं० १५२० बताया गया है'
पनर से बीसा, फागुण सिद्धि तणउ निवास,
रवि पक्ष अने तिथि तरेसि ते रच्यउ पुन्यप्रकाश ।' इसमें कवि ने अपने को बडतपगच्छीय ज्ञानसागरसूरि का शिष्य बताया है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार है
_ 'सिरि रिसहेसर पयनमी, संतिकरण श्री शांति,
पूजिसु पास कपूरसिउं, पूरसिउं मन तणी खंति ।' १. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० ६७ २. श्री देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० ६४ ३. वही
भाग ३ पृ० ४९८ ४. वही
भाग १ पृ० ५६ ५. वही
भाग ३ पृ० ४८२
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