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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
३८५ अहनिसि सेवा करीजइ जिनवर, तो निश्चय पामीजइ शिवपुर,
तुम्ह मुष जोता हरष न भाउ, सकल सुरिंद सदा गुण गाउं । अन्त : स्वामी ध्याउं श्री जिनचन्द, ध्यान धरतां परमानन्द,
जेछइ सास्वत सुखअनन्त, लोधानइआपो भगवंत ।' 'देवपूजागीत' की प्रथम पंक्ति में कवि जिनवर पूजन का विवरण देता हुआ कहता है'केवल भाषित सूत्र मझारि, जिनवर पूजा बहु विस्तारि।' अन्त में पुन: कहता है___ 'विस्तारि बहु जिनवर पूजा, ज्ञाताधर्मकथांग,
कर जोड़ी प्रणमत सेवक लीधउं सुगति आपु स्वामीउ ।' लीधा अपने को भगत कहते हैं और उनकी रचनाओं में तत्कालीन भक्ति काव्य का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। इन्होंने जो साहित्य लिखा है वह भगवंत की पूजा, विनती, नमस्कार अर्थात् भक्ति सम्बन्धी ही है। वीसविहरमानजिनगीत की निम्नांकित पंक्तियां इस सन्दर्भ में अवलोकनीय हैं
'सामि सीमंधर पमुह जिणंद, वीसइ अ जगगुरु गाइइओ,
भगत लीधउं भणइ धरीअ आणंद, शास्वतां सुख जिम पाइइ ।' लीधो एक भक्त एवं सरल हृदय सुकवि थे। भक्ति भाव आपके काव्य में मुख्य रूप से मिलता है।
वच्छ-वाछो-आप बडतपगच्छीय ज्ञानसागरसूरि के श्रावक भक्त थे । थोड़े से जिन श्रावकों ने साहित्य निर्माण में योग दिया है उनमें वच्छ या वाछो का स्थान महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इनके सम्बन्ध में अधिक विवरण उपलब्ध नहीं है। इनकी रचना 'मृगांकलेखाचरित्र' (सं० १५२३ ) जैन साहित्य में पर्याप्त प्रसिद्ध है। इसकी हस्तलिखित प्रति सं० १५४४ की प्राप्त है । इसका रचना काल मूलपाठ में इस प्रकार बताया गया है
पनर वीस फागुण सुदि बहु बुद्धि तणु निवास,
रवि पक्ष अनइ तिथि तेरसि, ते रचिउं स्तुति प्रकाश । इस चरित्र में सती मृगांकलेखा का पवित्र चरित्र चित्रित है। कवि ने रास के अन्त में अन्य सती नारियों जैसी सीता, सुलसा, चंदनबाला और १. श्री मो० द० देसाई–० गु० कल-भाग १, पृ० १६२-१६३ और भाग ३
पृ० ६१९-६२०
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