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________________ ४८४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मुनि लावण्यसमय भइ, कहूं जि बेकर जोडि, कवि सुप्रसन्न होज्यो सदा सीमधंर धर्मं थकी मुजजोडि । ' 'गोरीसांवलीगीत' विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला लोकगीत है । इस प्रकार हम देखते हैं कि लावण्यसमय ने सत्काव्य को ही केवल बड़ी मात्रा में सर्जना नहीं की बल्कि लोककाव्य भी पर्याप्त लिखा और हर प्रकार की काव्यविधा में प्रभूत साहित्य सृजन करके मरु-गुर्जर का भण्डार भरा । इनकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव निस्संदेह अधिक है । इसीलिए श्री देसाई ने उन्हें गुजराती का ही कवि घोषित किया है परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि ये मरु-गुर्जर के महाकवि हैं। ऊपर दिए गये उद्धरणों से विज्ञ पाठक स्वयं इसका अनुमान कर सकते हैं । लावण्यसिंह - आप खरतरगच्छीय उदयपद्म के शिष्य थे । आपने संभवतः सं० १५५८ में 'ढंढणकुमाररास' (५६ कड़ी ) की रचना की । इस रास की अन्तिम चार पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं 'खरतर गछि गुरु गुणनिलउ, उदयपद्म वणारीस, वाचक लावण्यसिंह कहि, आदि नमंतु सीस । मन्दिरि गिरिवर सागर, शेष मणधर जाम, रवि शशि मंडन जां तपि, ढंढण चरित्र गुणग्राम | ५६ | 2 इसमें ढंढणकुमार के चरित्र का गुणानुवाद किया गया है। रचना अति सामान्य कोटि की है । लीधो - आप १६ वीं शती के अन्तिम चरण के महत्त्वपूर्ण कवि हैं । १७ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि ऋषभदेव ने आपका श्रेष्ठ कवियों के साथ सादर स्मरण किया है । आपकी रचनायें 'पार्श्वनाथनाम्नासंवेगरस' चंद्राउला, देवपूजागीत ( १५ दोहा ), चौबीस जननमस्कार ( २५ कड़ी ), बीस विहरमान जिनगीत ( २१ गीत ) आदि उल्लेखनीय हैं । 'चन्द्राउला' की भाषा-शैली का नमूना लीजिये 'सकल सुरिंद नमि सदारे पास जिणेसर देवो, मानव भव पामी करी रे, अहनिसि कीजि सेबो । १. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग ३, पृ० ५१.४ २. वही, पृ० ५२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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