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मरु - गुर्जर जैन साहित्य
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मत्स्योदर चरित्ररास की रचना सं० १५७४ में हुई । कुछ लोग इसे लावण्यरत्न के गुरु सुरहंस की रचना समझते थे किन्तु श्री देसाई का निश्चित अभिमत है कि इसके कर्ता लावण्यरत्न ही हैं; न कि उनके गुरु सुरहंस | इसकी विभिन्न प्रतियों में पाठान्तर मिलता है । इसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
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'श्री तपा रत्नशेखरसूरि जिणि पडिबोध्या
सावक सहस, संवत पर चित्तरि वरिसे, देवगिरि नगर कीधउ रास । " इससे यह पता चलता है कि प्रायः ये सभी रचनायें देवगिरि में रची गई और सं० १५७० के पश्चात् अगले दो तीन वर्षों में ही लिखी गई हैं । इनकी भाषा शैली भी इनके एक ही कर्त्ता का संकेत करती है ।
लावण्य समय - आप तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि की परम्परा में समयरत्न के शिष्य थे । आप इस शताब्दी के एक महाकवि हो गये हैं और गुर्जर साहित्य के कतिपय इतिहास ग्रन्थों में १६वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को लावण्यसमय युग के नाम से भी पुकारा गया है। किसी महापुरुष के नाम पर किसी युग का नामकरण तभी होता है जब उसने किसी ऐसी प्रवृत्ति का प्रवर्तन किया हो जो तत्कालीन साहित्य की युग-प्रवृत्ति बन गई हो, या उसने उस युग की सभी प्रतिनिधि प्रवृत्तियों और विधाओं में श्रेष्ठ काव्य की रचना की हो, अथवा उसने तत्कालीन साहित्यकारों और साहित्यिक गतिविधियों का नेतृत्व किया हो, या उसने समर्थ साहित्यकारों का एक ऐसा मंडल निर्मित किया हो जो उसके आदर्शों पर साहित्य रचना में संलग्न रहा हो । लावण्यसमय ने उस युग में प्रचलित प्रायः सभी काव्य विधाओं में प्रभूत साहित्य निर्मित कर मरुगुर्जर साहित्य को सम्पन्न किया और अपने गतिशील नेतृत्व द्वारा दूसरे अनेक लोगों को साहित्य सृजन में लगाया । इनके गुरुभाइयों और शिष्यों का एक समूह इन्हें केन्द्र मानकर काव्य रचना में प्रवृत्त हुआ । अतः इन्हें यदि युग निर्माता कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी, लेकिन मरुगुर्जर में केवल गुर्जर साहित्य ही नहीं है उसमें मरुसाहित्य भी है अतः इन्हें मरुगुर्जर का युग निर्माता मानने में कुछ आपत्ति हो सकती है फिर भी ये मरुगुर्जर के निर्विवाद महाकवि हैं । इन्होंने छोटीबड़ी पचासों रचनायें की हैं जिनमें रास, प्रबन्ध, हमचडी, संवाद, संज्झाय, बेलि, विवाह, गीत आदि अनेक काव्य प्रकार प्रयुक्त हुए हैं । सहजसुन्दर
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१. श्री देसाई - जै० गु० क०, भाग १, पृ० १३२ २. श्री देसाई - जैन साहित्य नो इतिहास पृ० ५२४
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