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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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अन्य कोई कृति अबतक उपलब्ध नहीं है । इस रास की प्रारम्भिक पंक्तियाँ देखिये :
'पणमवि वीर जिणंद, स्वामी सिद्धत्थरायकुलचंद, सेवि सुरनर इंद, जस नामे होइ आणंद । नाभिकमल जस वासं, थिरवासं, पूरने आसं, राजग्रह वरनयरं, राजा नामेण सेणिय सारं । मन्त्री अभयकुमारं उत्तम गुणबुद्धि भण्डारं । "
_इसमें अनुस्वार के अधिक प्रयोग द्वरा भाषा को संस्कृताभास बनाने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है । भाषा मरुगुर्जर ही है ।
लावण्यदेव - आप जयदेव के शिष्य थे । आपने 'कर्मविवरणरास' नामक रचना की है । जयदेव तपागच्छीय आ० धनरत्नसूरि की परम्परा में थे । इस परम्परा में धनरत्नसूरि से पूर्व उदयधर्मसूरि और सौभाग्यसागर सूरि नामक दो आचार्य हो गये । इसका प्रारम्भिक छन्द देखिये
'सकल जिणवर सकल जिणवर भगति प्रणमेवि, सरसति सामिणि धरीय मनिय गोयम गणधर सामिय ।
तास पसाई हुँ तंबु चोद गुणठाणिय, गुरु वयणे सुपसाउले बोलिसु ं वचन विशाल | जे सुतां सुख संपजे टलिइ ति भवभयपास 12
लेखक ने इस रचना में अपनी गुरु परम्परा बताई है । धनरत्नसूरि लब्धिसागरसूरि के पट्टधर थे । अतः यह कवि भी बडतपगच्छीय वृद्ध पोशालिक शाखा में सं० १६०० के आसपास हुआ होगा । इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है
'दान शील प्रभावे करी, निर्मल चित्त हैया आदरी, लावण्यदेवइ इणिपरि कहि, भविक लोक ने कारण सही |७४ | जे भणतां मंगल घरि होय, भणतां संपति घरि सोय, अभणतां हुइ नविय निधान, अभणतां णामे कल्याण ॥ ७५ ॥ ३ आपने इस ग्रन्थ रचना का काल इसमें नहीं दिया है किन्तु यह रचना इस शताब्दी के अन्तिम दशक की हो सकती है ।
१. श्री देसाई - जै० गु० क० - भाग १, पृ० १३५
२. वही पृ० १६३ ३. बही १६४ - १६५
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