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मरु - गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इय देव पुरन्दर सत्थिय सुंदर अज्जिय कीरिय परमेसर अ, जो पभणइ भावई सरल सुभाविइ तूसइ तासनि 'जगगुरु अ । इसके भी अन्त में लेखन काल दिया है संवत् १५ आषाढ़वदि ५४ वर्षे द्वितीय श्रावण सुदि १ सोमे लिखित शुभं भवतु । "
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रचनाकाल बताने की यह समानशैली दोनों रचनाओं के एक ही कर्ताका सूचक है । इनकी भाषा भी प्रायः एक जैसी सरल, सुबोध मरुगुर्जर है, यद्यपि बीसी की तुलना में चौबीसी की भाषा अधिक काव्यरूढ़ है ।
श्री देसाई ने जै० गु० क० भाग १ में लब्धिसागर कृत 'श्रीपालरास' (सं० १५५७) एवं ध्वजभुजंगकुमार चौ० का उल्लेख किया है । " किन्तु भाग ३ में उन्होंने बताया कि श्रीपालरास महगुर्जर की रचना नहीं है, और ध्वजभुजंगकुमाररास के लेखक लब्धिसागर १८वीं शताब्दी के हैं । इस विचार से श्री अ० च० नाहटा एवं देसाई दोनों सहमत हैं; अतः लब्धिसागर की उक्त रचनायें यहां विचारणीय नहीं हैं ।
लाभमंडन - आप आंचलिकगच्छ के भावसागरसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५८३ ( कार्तिक शुद्ध १३ गुरुवार) अहमदाबाद में 'धनसारपंचशालिरास' की रचना की । रचनाकाल की सूचना रास में इस प्रकार बताई गई है :
'संवत पनरह संवत्सर त्रीसीइ रे रुअडउ कार्तिक मास रे, गुरुवासर दिन तेरसि केरडउ, कीधो ओ मनि उल्हासि रे, अरिहंत वे । इसमें कवि ने अपनी गुरुपरम्परा का वर्णन किया है, यथा :'श्री विधिपक्ष गछ गणधर रुपडारे श्री भावसागरसूरि रे, नामि नवनिधि हुइ जेहनइ रे, पातिग जाइ सवि दूरि रे ।
श्री भावसागरसूरि अञ्चलगच्छ की विधिपक्ष शाखा के ६१ वें पट्टधर थे । इनका जन्म मारवाड़ के ग्राम नरसाणी निवासी सांगा की पत्नी सिंगार दे की कुक्षि से सं० १५१० में हुआ था । इन्होंने सं० १५२० में दीक्षा ली और सं १५६० में गच्छेश पद पर प्रतिष्ठित हुए । लाभमंडन इनके शिष्य थे, अतः उनका रचनाकाल १६वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही होगा। इनकी
१. श्री अ० च० नाहटा - मरु-गुर्जर जैन कवि पृ० १२८ २. श्री देसाई - जै० गु० क०, भाग १, पृ० १०१
३. वही पृ० १३५
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