________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४७३ 'इम धन्नो धणनइं परिचावइ, नरभव अथिर दिखावइ रे,
तेहिज सांचा सयण कहावइ, जे जिणधरम सुणावइ रे । इसके २३वें छन्द में कवि के नाम की छाप इस पंक्ति में है
'इम जाणी शाणी अजिनवाणी मनमांहि आणी सद्दवहे थे, तुम्हें भवियण प्राणी नरग समाणी दुरगति खाणी नवि लहो । लक्ष्मीकल्लोलह पंडित इणिपरि बोलइ जे ते आचरो थे,
जिम नरभव पामी परभव पामी परभवि शिवरमणीवरो ।' इस छन्द में आनुप्रासिकता, लय और छन्द प्रवाह के कारण गेयता का विशेष गुण है । इसकी भाषा बोलचाल की स्वाभाविक मरुगुर्जर है जिसमें [शब्दालंकारों पर कवि का विशेष ध्यान दिखाई पड़ता है।
लब्धिसागरसूरि-आपकी दो लघु रचनायें '२४ जिनस्तवन (चौबीसी) सं० १५३० और 'बीसी' (२० स्तवन) सं० १५५४ प्राप्त हैं। बड़तपगच्छीय लब्धिसागरसूरि के पट्टधर धनरत्नसूरि और सौभाग्यसागरसूरि का समय १६वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध निश्चित है। इसलिए चौबीसी और बीसी के रचनाकार बड़तपगच्छीय लब्धिसागर ही होंगे जिन्होंने संस्कृत में 'श्रीपालकथा' लिखी है। आप संस्कृत और गुजराती आदि भाषाओं के जानकार मालूम होते हैं । इनके चौबीसी और बीसी की कुछ पंक्तियाँ भाषा शैली के उदाहरणार्थ प्रस्तुत की जा रही हैं । चौबीसी की पंक्तियाँ देखिये
इय वीर जिणेसर संघ सहिकर धम्म लखिमी भासणो, हरि भुत्ति लंबण झलत्ति सासणि नीति सग्ग पयासणो। नवरस पवित्त तुज्झ धत्त भणइं अणुदिण जे नरो,
सोइ लहि लद्धी जगपसद्धी गूणगंभीरिम सागरो।" इसके अन्त में लिखा है 'इति श्री महावीरस्य नवरस मयं स्तवन श्रीश्री श्री लब्धिसागरसूरिभि कृतानि चतुर्विशति जिनानां स्तोत्राणि समाप्तानि । सं० १५३८ वर्षे महासुदि ६ रवौ लषितं ।' 'बीसी' की अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार है :
'धवल मंगल गुण गाइ वाला, रासभास वर तोरण माला,
बाजइ कित्ति भेरि भंकारा, घरि घरि उच्छव जयजयकारा। १. श्री दे० जै० गु० क०-भाग ३, पृ.० ६४२ २. वही, पृ० ५२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org