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मरु-गुर्जर जैन साहित्य आपकी एक अन्य रचना 'उत्तराध्ययनगीत' का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है
"सरसतिमति अति निरमली, आपउ करीय पसाय, गाइसु हुं जिन ध्रमतणउ, मूल विनय करी भाउरे ।
इम गुण विनय तणा सुणेणो, जे नितु करइ अभ्यास,
श्री राजशील उवझाय भणइ, सफल फलइ तीहां आ सार।" अन्तिम पंक्तियाँ-"इम कह्या जिनवर वीरि समरथ अरथ जिनमत सार,
ते चित्ति धरतां विजय लहीयइ हवइ जय जयकार ।। श्री नाहटा ने परम्परा में प्रकाशित अपने लेख राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल' में हरिबलचौ० (सं० १५९९) को भी आपकी रचना बताया है किन्तु वह रचना साधुहर्ष के दूसरे शिष्य राजरत्न की है जिसका विवरण पहले दिया जा चुका है अतः यह राजशील की रचना नहीं हो सकती। श्री नाहटा जी ने यह भी सूचित किया है कि राजशील कवि के अलावा गद्यकार भी थे और सिन्दूरप्रकर पर बालावबोध लिखा है।
आपने उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों का संक्षेप सारांश गीतों में लिखा है । इस तरह के ३६ गीत जो ४१६ पद्यों में निबद्ध हैं कवि की काव्य क्षमता और शास्त्रज्ञता के द्योतक हैं। इनके सम्बन्ध में डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने 'कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि' में पर्याप्त प्रकाश डाला है किन्तु 'हरिबलचौ०' की चर्चा नहीं की है।
लखमण ( लक्ष्मण )--१३वीं १४वीं शताब्दी के तीन चार लक्ष्मणों को चर्चा यथास्थान हो चुकी है, प्रस्तुत लक्ष्मण मध्ययुग के प्रथम लक्ष्मण हैं । इन्होंने सं०१५६८ से पूर्व 'शालिभद्रविवाहल' लिखा। इसके अलावा इन्होंने 'नेमिनाथस्तवन' सं० १५१९ कार्तिक, ८२ कड़ी, 'महावीरचरित' (कल्पसिद्धान्त भाषित ) चौ० सं० १५२१ फाल्गुन वदी ७ सोमवार, '२४ जिननमस्कार' (२५ गाथा) आदि रचनायें लिखी। शालिभद्रविवाहल में कवि अपना नाम लखमण बताता है, यथा१. श्री दे० जे० गु० क०-भाग ३, पृ० ५४२ (५३९ सं० ५४२ तक) २. श्री क. च० कासलीवाल-क० बु० एवं उ० सं० पृ. ९
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