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________________ यथा ४६८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास "संवत पनरइ नवाणवइ अ, आदरि आसो मासि कि, सांनिधि श्री संघह तणइ अ, नियमन तणइ उल्हासि कि ।' यह रचना जीवदया का महत्व दर्शाने के लिये लिखी गई है। इसमें कवि ने अपनी गुरु परम्परा का वर्णन इस प्रकार किया है "खरतर गच्छि गोयम समवडि, विवेकरतन सूरीद, तासु सीस साधुहरष गुरु, जसु पय नमइं नरीदं । तासु सीस श्री राजरतन सूरि जीव दया फल जाणी, बोलइ आपणम आणंदाइ, अमिय समाणी वाणी।"] इसकी मरुगुर्जर भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव कुछ विशेष लगता है। राजशील--आप भी खरतरगच्छीय साधुहर्ष के शिष्य थे । आपने सं० १५६३ (जेष्ठ सुदी ७) चित्तौड़ में 'विक्रमखापरचरित्रचौ०' लिखी जिसमें खापरा चोर का प्रसंग वणित है। २०५ पद्यों की इस रचना में पराई वस्त की चोरी न करने का उपदेश दिया गया है___"इम सांभली पराइ वस्त भवियां नव लीजइ अदत्त, चोरी पणउ निवारउ दूरी, जिव शिव सम्पद पामउ पूरी । रचनाकाल और स्थान का उल्लेख इन पंक्तियों में देखिये "पनरसइ त्रिसठी सुविचारी, जेठे मासि उज्जल पखि सारी, चित्रकूट गढ़ तास मझारि, भणता भवियण जय जयकारी।" गुरु का उल्लेख इन पंक्तियों में किया है "साधुहरष गिरुआ गुरुराय, जइवंता महिय लि उवझाय, जाणइ अंग इग्यार बखाण, जिणवरनी सिर पालइ आण।" आपकी दूसरी रचना अमरसेनवयरसेन चौ० सं० १५९४ में लिखी गई जिसमें दोनों भाइयों के चरित्र के माध्यम से जिनेश्वर की पूजा का सुफल समझाया गया है । अन्त में कवि कहता है "इम जिन पूजा फल संभलि, वीतराग जे प्रजा वली। तह घरि नव रिद्धि मंगलच्यार, अहनिसि निश्चै जय जयकार ।२६३१ रचनाकाल-"राजसील उवझाय मनरंगि, पूजाजिनफल आणि अंगि, संवत पनरचउराणवइ, आणंद आणी मन आपणा ।" १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क- भाग ३, पृ० ६३२ २. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० ६३ ३. श्री देसाई-जै० गु० क०-भाग ३, पृ० ५४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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