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अन्त
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४६७ राजतिलकगणि-आप पूर्णिमागच्छीय साधु थे । आपका धातु-प्रतिमालेख सं० १५१६ और १५२९ का मिला है; अतः आपका समय १६वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध होना चाहिये। आप १५वीं शताब्दी के राजतिलक से भिन्न प्रतीत होते हैं जो विजयतिलक के शिष्य थे और जिन्होंने जंबूस्वामीफागु लिखा है।
विवेच्य राजतिलक की एक रचना "शालिभद्रमुनिरास' (३५ पद्य) जैनयुग पुस्तक २, पृ० ३७० से ३७३ तक पं० लालचन्द गाँधी द्वारा अर्वाचीन गुजराती छाया सहित प्रकाशित है । इसके रचना काल के सम्बन्ध में मतभेद है। कुछ लोग इन्हें जम्बूस्वामीफागु के कर्ता राजतिलकसूरि ही मानते हैं।' शालिभद्रमुनिरास का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
'थंभणपुरि पह पासनाह पणमेविण भत्ति अ, हउं पमणिसु सिरि सालिभद्द गुणि तिलयह रासू । भवियहु निसणहु जेण तुम्ह हुइ सिवपुरि वासू ।' "सेणिय बोहिय भद्दा निय धरि, पत्ता सबद्भसिद्धिते मुणिबर, राजतिलक गणि संथुणइ, वीर जिणेसरु गोयम गणहरु । सालिभद्र नहि धन्नउ मुणिवरु, सयलसंघ दुरियइं हरउ । सालिभद्र मुणिरासो में खेलादिती
तेसिं सासण देवी जणयाउ सिव संती।३५।" पं० लालचन्द गाँधी ने जिस प्रति से सम्पादन किया है वह सं० १४९३ की लिखी बताई गई है अतः इस दष्टि से यह रचना १५ वीं शताब्दी की ठहरती है। श्री देसाई ने इसे १६वीं शताब्दी की और श्री नाहटा ने १५वीं शताब्दी की रचना बताया है। इस अनिश्चय के कारण इस कवि की एक रचना 'शालिभद्रमुनिरास' का ही परिचय यहां दिया जा रहा है। इसकी भाषा में भी प्राचीनता के पुट के साथ अपभ्रंश-प्रयोगों की अधिकता है अतः यह भी संभावना है कि यह कवि पहले का हो। कहीं-कहीं इसका रचनाकाल सं० १३३० भी बताया गया है। यह विवाद विद्वानों द्वारा निर्णय की प्रतीक्षा में स्थगित रखा जा रहा है।
राजरत्नसूरि-आप खरतरगच्छ के साधु विवेकरत्नसूरि के प्रशिष्य एवं साधुहर्ष के शिष्य थे। आपने सं० १५९९ में 'हरिबलमाछीचौपइ' लिखा, जिसका रचना काल कवि ने स्वयं इस प्रकार बताया है१. श्री मो० देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० ५२ एवं भाग ३, पृ० ४७४ २. वही
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