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४६४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
यह रचना १६वीं शताब्दी की है किन्तु इसका प्रामाणिक पाठ और रचनाकार तथा रचना सम्बन्धी अन्य विवरण अनिश्चित है।
रत्नसिंहसूरि के शिष्य द्वारा एक और रचना 'जंबूस्वामीरास' सं० १५१६ द्वितीय श्रावण शु० सोम० को लिखी गई। रचना काल का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :--
'संवत पनर सोलोत्तरइ ओ मालंत, बीजइ श्रावण मासि सुणि सु; शिवतिथि हूंति ऊजली अ माल० सोमवारइ हुउरास । इस रास में कवि ने अपने गुरु रत्नसिंह की वंदना की है :'तपगछि गणधर अभिनवा मे माल० अवतरिय गोयम सामि सु, रयणसिंहसूरि ध्याइयइं मालं० अष्ट महासिद्धि नामि ।
इससे स्पष्ट है कि यह रचना भी रत्नसिंहसूरि के किसी शिष्य की है किन्तु यह निश्चय नहीं कि ये रत्नचूडरास के कर्ता हैं या अन्य कोई शिष्य । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
सरसति सामणि सारदा अ, गोयम गणधार, रास बंधि गुणबत्तीइ अ सिरि जंबकुमार । जंबूदीवह भरहक्षेत्र मगध वर देस,
नयर राजगृहि जाणीइओ श्रेणीय नरेस ।' इस रास की भाषा पर गुर्जर भाषा का प्रभाव अधिक है। तपागच्छीय लेखक की रचना होने से इसका गुजरात में लिखा जाना और गुर्जर भाषी होना संभव है। संभवतः उक्त दोनों रचनायें गुजरात में ही लिखी गई हैं
और दोनों के कर्ता एक ही व्यक्ति रत्नसिंह के शिष्य हो सकते हैं क्योंकि दोनों की रचना-शैली और भाषा में पर्याप्त साम्य है।
विक्रम की १४वीं शताब्दी में भी रत्नसिंहसूरि हो गये हैं जिनके शिष्य विनयचंद ने कई महत्त्वपूर्ण रचनायें की। उनका विवरण यथास्थान दिया जा चुका है।
रत्नसुन्दर-आप बड़तपगच्छीय जयधीर के शिष्य थे। आपने 'अर्बुदगिरितीर्थबिंबपरिमाणसंख्यायत स्त०' (२१ गाथा ) नामक रचना अपभ्रंश प्रधान भाषा में रची है, जिसकी प्रारम्भिक दो पंक्तियां भाषा के नमूने के लिए प्रस्तुत हैं :१. श्री देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० ५२ और जैन सा० नो संक्षिप्त
इतिहास पृ० २२३
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