________________
४६३
मरु-गुर्जर जैन साहित्य 'जेह मनि शमरस सुन्दरी, सुन्दरी बसइ अरालि,
ते मझ सील सुदरिसण दरिसण दिउ सुप्रभाति ।५०।' इस प्रकार ५३ छन्दों में नारी आसक्ति का उत्पाटन कर शान्तरस की स्थापना करने वाला यह फागु है। कवि संस्कृत और मरुगुर्जर का सक्षम प्रयोक्ता प्रतीत होता है । उसने मरुगुर्जर और संस्कृत में साथ-साथ नारी की शोभा का वर्णन करते हए उससे विरक्ति पैदा करने का अलंकारिक चमत्कार दिखाया है। इस रचना में कवि के साहित्यशास्त्रीय ज्ञान एवं उसके प्रयोग के क्षमता की कुशल अभिव्यक्ति हुई है। यह रचना आध्यात्मिक दष्टि से जितनी महत्त्वपूर्ण है उतनी ही काव्य कला की दृष्टि से भी विचारणीय है।
रत्नसिंहसूरि शिष्य-रत्नसिंहसूरि के किसी शिष्य ने रत्नचूडरास लिखा है। यह सं० १५०९ की कृति है। श्री नाहटा का कथन है कि इसके कर्ता एवं इसके मूलपाठ के संबंध में मतैक्य नहीं है। देसाई जी भी इसे कभी रत्न सिंह कृत और कभी रत्नसिंह शिष्य कृत बताते हैं। रचना काल भी विभिन्न प्रतियों में सं० १५०१, १५०९ और १५१४ आदि पाया जाता है। इसमें दान, शील, तप का माहात्म्य बताया गया है, यथा
'दान शील तप भावनासार, दान तणइ उत्तम विचार,
दानिइं जस कीरति विस्तरइ, त्रिणि जीव दानई पण तरइं।' रचनाकाल के दो पाठान्तर देखिये :(१) पनर नवोतरई हइउ प्रबन्ध, पढ़ता गणतां टलई सविबंध' (२) पनर एकोत्तरइ नीपनो प्रबंध रतनचूड नो अह संबन्ध ।' इसके मंगलाचरण के दो पाठान्तर आगे प्रस्तुत किए जा रहे हैं :___ 'सरसति देवी पय नमी मागिसउ चित्त पसाउ,
रत्नच्ड गुण वर्णविउं दान विषय जस भाउ ।१।' इसका पाठान्तर दूसरी प्रति में इस प्रकार है :
'सरसति सामिणि वीन, मांगु एक पसाउ, वत्रीस लक्षणि आगल उ, गाइसं वत्सराजराउ'
१. प्राचीन फागु संग्रह पृ० ७१-७२ २. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० ६० ३. श्री देसाई-ज० गु० के०-भाग ३, पृ० ४६४ ४. वही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org