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मरु-गुर्जर की निरुक्ति
३१ तत्सम, तद्भव के अलावा प्राकृत या अपभ्रंश में जो शब्द हैं उनकी प्रकृति प्रत्यय का विचार कठिन है । वे लोक प्रयोग में चले आ रहे हैं और वही प्रमाण है' । परिमाणतः अपभ्रंश में एक ही शब्द के अनेक रूप पाये जाते हैं। जिन शब्दों के समान रूप संस्कृत में नहीं मिले उनके देशज या रूढ़ रूपों का प्रयोग प्रचलित हुआ। विभक्तियां घिसने लगीं; एक ही विभक्ति 'हं' कई काम में आने लगी। व्यञ्जनों का लोप और स्वरों की प्रधानता इसकी अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है किन्तु इसका परिणाम यह भी हुआ कि गत और गज दोनों का रूप गय काच और काक तथा कार्य तीनों का एक रूप 'काय' स्पष्ट अर्थ बोध कराने में असफल भी रहा । कारक और क्रिया विभक्तियों की मन्दता तथा क्रिया पदों का रूप बनाने में प्रत्यय लगाने की मंदता इसकी अन्य परवर्ती विशेषता बन गई थी। प्रत्यय बिना ही भाषा आगे बढ़ने लगी। इसी अपभ्रश या ग्राम्यापभ्रश के साथ पुरानी हिन्दीमरु-गर्जर का विशेष सम्बन्ध है। हेमचन्द्र ने दोनों प्रकार के अपभ्रशों की 'सिद्धहैम' में चर्चा की है। उन्होंने शिष्टजनों की अपभ्रश का उन्होंने व्याकरण बनाया और ग्राम्यापभ्रश को जन प्रचलित बोल बताया। भाषाशास्त्र की दृष्टि से ग्राम्यापभ्रश अधिक अग्रसर भाषा रही होगी जिसे ही अवहट्ट पुरानी हिन्दी आदि नाम भी दिया गया है। संदेशरासक की भाषा को अहहमाण ने न अधिक पंडितों और न मों की बल्कि मध्यम श्रेणी के लोगों के लिए लिखी भाषा बताया है अर्थात वह बोलचाल की भाषा में है।
वि० १२वीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश और मरु-गुर्जर का मिला-जुला संक्रान्ति कालीन रूप व्यक्त होने लगा था। इसको समझने के लिए उनका तुलनात्मक रूप देखिये। हेमचन्द्र ने कुमारपाल चरित में अपभ्रंश का मुत्र समझाने के लिए निम्न उदाहरण दिया है 'जो जहाँ होतउ सो तहाँ होतउ, सत्तु वि मित्त वि कहे विहु आवहु।
जाहि विहुताहि विहु मग्गे लीणा, अक्क ओ दिट्ठिहि दोन्न विजोयहु । इसका हिन्दी रूपान्तर देखिये'जो जहँ हो तो सो तहं होतो शत्रुभि मीतभि कोइहि आवो । जहाँ भी तहाँ भी माणलीना। एकहि दीठिहि दोनहि जो हो ।
इस दोहे में 'जहाँ होतउ - ज्यां हतो (वर्तमान धातुज कृदन्त)-ज्यांथी में स्पष्ट ही अपभ्रंश से देशी भाषा के क्रमिक विकास की कड़ी मौजूद है। एक अन्य उदाहरण लीजिए
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