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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मरुगर्जर और इसी की एक प्रादेशिक शाखा 'अवंती' से मालवी बोली का विकास हआ, नागर अपभ्रश की पूर्वी शाखा से पूर्वी राजस्थानी, ब्रज और खड़ी बोली का विकास बताया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि आ० हेमचन्द्र ने अपभ्रश का व्याकरण बनाते समय शौरसेनी को ही आधार माना है। मारकण्डेय ने अपने व्याकरण में जिस नागर अपभ्रंश का उल्लेख किया है वह शौरसेनी का ही एक रूप है। इसका नाम नगरवासी या गुजरात के नागर ब्राह्मणों या वृद्धनगर के आधार पर पड़ा, यह निर्विवाद नहीं है।
आ० हेमचन्द्र ने सिद्धराज जयसिंह के कहने पर अपभ्रश की भाषावैज्ञानिक एवं व्याकरणिक विवेचन अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' (सिद्ध हैम) में किया है। इसके आठ अध्यायों में लगभग ४५०० सूत्र हैं। इसकी शैली 'कौमुदी' जैसी है। इसके सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण का और आठवें में प्राकृत का विवेचन है जिसके अन्तर्गत इन्होंने अपने समय की प्रचलित भाषा का विवेचन किया है इन्होंने संस्कत से प्राकृत का विकास माना है। प्रकृति 'संस्कृतं, तत्रभवं तत आगतं वा प्राकृतम्' । 'देशीनाममाला' में इन्होंने देशी शब्दों की तालिका देकर बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने द्वयाश्रय काव्य में शब्दानुशासन के आठवें अध्याय के व्याकरण के नियमों को कूमारपाल के चरित से सम्बद्ध करने की अच्छी चेष्टा की है। मो० द० देसाई ने कुमारपाल चरित को अपभ्रश के साथ जूनी गुजराती का काव्य कहा है। इससे लगता है कि इस समय तक अपभ्रश में मरु-गुर्जर का विकास प्रारम्भ हो गया था और इस सन्धिकालीन भाषा में अपभ्रश और मरु-गुर्जर के प्रयोग सम्मिलित थे। __ अपभ्रश की प्रमुख विशषतायें--अपभ्रंश ने न केवल प्राकृत से बल्कि संस्कृत के भी बहुत से शब्दों को ज्यों का त्यों ले लिया देशी बोलियों में कुछ शब्द और पद ऐसे मिले जिनके प्रकृति-प्रत्यय का विवेचन करने में आ० हेमचन्द्र को कठिनाई प्रतीत हुई। देशीनाममाला में कहा है कि 1. Dr. Tagore-Historical Grammar of Apabhramsa. २. मो० द० देसाई- 'जैन गुर्जर नो इतिहास' पृ० १११ ३. सन् १८७७ में जर्मन भाषा शास्त्री पिशेल ने हेमचन्द्र के व्याकरण का
सम्पादित संस्करण प्रकाशित किया। इन्हें अपभ्रश का पाणिनि कहा गया। मुनि जिन विजय जी इन्हें 'आपिशल' नामक वैयाकरण का पुनरावतार कहते हैं।
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