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________________ मरु-गुर्जर की निरुक्ति २९ अपभ्रंश भाषा की सामान्य प्रव त्तियां--भाषाओं के सम्बन्ध में यह आमधारणा है कि एक परिवार की भाषायें किसी एक आदिभाषा से उत्पन्न होती हैं । वह आदि या मूलभाषा जब अपने क्षेत्र से बाहर विशाल प्रदेश में फैलती है तब उसमें स्थानीयभेद उत्पन्न हो जाते हैं। अपभ्रश के सम्बन्ध में भी ऐसी ही धारणा है कि इसका विकास प्राकृतों के आधार पर हुआ है और प्रत्येक प्राकृत को अपभ्रंश से होकर गुजरना पड़ा होगा किन्तु प्राचीन पंडितों ने अपभ्रश के तीन भेद-नागर, उपनागर और ब्राचड़ का ही प्रायः उल्लेख किया है। डॉ० तगारे ने पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी अपभ्रश की चर्चा अपभ्रंश-व्याकरण में की है। उन्होंने पूर्वी अपभ्रंश में सरह, कण्ह के दोहा-कोष तथा चर्यापदों को, दक्षिणी अपभ्रश में पूष्पदंत और मुनि कनकामर आदि की रचनाओं को तथा पश्चिमी अपभ्रश में जोगीन्द्र, रामसिंह और धनपाल आदि की कृतियों को सम्मिलित किया है । पूर्वी अपभ्रश को बगला, मैथिली और भोजपुरी का पूर्वज कहा गया है किन्तु इनके काव्यसाहित्य पर मागधी अपभ्रश की अपेक्षा शौरसेनी का प्रभाव अधिक दिखाई पड़ता है क्योंकि एक समय पश्चिम से पूर्व तक समूचे उत्तर भारत की काव्यभाषा शौरसेनी हो गई थी और प्राप्त साहित्य उसी भाषा का है इसलिए हेमचन्द्र की अपभ्रंश और दोहाकोष की अपभ्रश में अधिक अन्तर नहीं दिखाई देता। रही दक्षिणी अपभ्रंश, वह तो डॉ० तगारे के अनुमान पर ही आश्रित है ! सत्य तो यह है कि बरारवासी पुष्पदन्त और कनकामर की भाषा भी परिनिष्ठित पश्चिमी अपभ्रंश ही है । १२वीं शताब्दी तक काव्यभाषा के रूप में केवल शौरसेनी (नागर) अपभ्रश का ही प्रयोग गुजरात से बंगाल और शरसेन से बरार तक होता रहा । पश्चिमी शौरसेनी अपभ्रंश तत्कालीन उत्तरी भारत की शिष्ट और साहित्यिक भाषा शौरसेनी प्राकृत का वह परवर्ती विकास है जो गुजरात और राजस्थान की बोलियों से मिश्रित था और जिसे नागर अपभ्रश कहा जाता था। इस नागर अपभ्रंश की स्थानीय शाखा गोर्जर अपभ्रंश है जिसका परवर्ती विकास डा० तेस्सीटोरी के अनुसार जूनी गुजराती और पश्चिमी राजस्थानी के रूप में हुआ था। इस प्रकार नागर अपभ्रंश से और रेफयुक्त आभीरी कहा है । लगता है कि उस समय तक यह सिन्ध देश में ही बोलचाल की भाषा थी अन्यत्र परिनिष्ठित भाषा के रूप में व्यवहत होने लगी थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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