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________________ २८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एक स्थानीय बोली से बढ़ कर १२ वीं शताब्दी तक एक लोक भाषा और काव्यभाषा की लम्बी यात्रा सफलतापूर्वक पूरा कर लेती है। छठी से १२ वीं शताब्दी की अवधि को ग्रियर्सन और सुनीति कुमार आदि भाषाविदों ने आर्य भाषा का मध्यकाल कहा है। यही अपभ्रंश भाषा का युग है। १२ वीं शताब्दी इसके लोकप्रचलन का अन्तिम छोर है, उसके बाद अपभ्रंश से मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी का विकास प्रारम्भ हो गया और विकास की यह प्रक्रिया १५ वीं शताब्दी तक चलती रही जिसके पश्चात् हिन्दी, राजस्थानी गुजराती आदि का स्पष्ट रूप प्रचलित हआ। इस संक्रमण काल की भाषा का नाम मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी है। अतः मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी की भाषावैज्ञानिक विशेषताओं को जानने के लिए उसकी पूर्वज भाषा अपभ्रंश की सामान्य प्रवत्तियों से परिचय प्राप्त करना भी अपेक्षित है। अपभ्रश का व्याकरण हेमचन्द्र ने बनाया और अपभ्रंश के सन्दर्भ में वे उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण आचार्य हैं जिस प्रकार संस्कृत के सन्दर्भ में पाणिनि । बहुला आभीरी और गुर्जर को भी सम्मिलित करते हैं। गुर्जर भी पशुपालन करने वाली एक घुमक्कड़ जाति थी। पशुपालन और कृषि करने वाली इन जातियों -आभीर, गुर्जर, जाट आदि का सिन्धु से मथुरा तक विस्तार हो गया था । इनकी प्रभाव-वृद्धि के साथ इनकी भाषा भी विस्तृत क्षेत्र में फैल कर काव्यभाषा बन गई। समुद्रगुप्त के प्रयाग वाले लेख में गुप्तसाम्राज्य के पश्चिम में बसी इन्हें एक प्रबल जाति कहा गया है। अहिरवार (झांसी) अहिरौरा (मिरजापुर), असीरगढ़ आदि नाम इनके प्रसार एवं प्रभाव के -सूचक हैं । ये संस्कृत का उच्चारण अपने ढंग से करते होंगे इसी से आचार्यों ने इनकी भाषा का विशेष लक्षण 'ऊकार बहुला' बताया होगा। १. आचार्य हेमचन्द्र का जन्म सं० ११४५ में उनकी दीक्षा सं० ११५४ में तथा उन्हें सूरिपद ११६६ में प्राप्त हुआ। आपका जन्म नाम चंगदेव, दीक्षानाम सोमवन्द्र और सूरिपद प्राप्ति के बाद हेमचन्द्र नाम प्रसिद्ध हुआ। आप चालुक्य शासक सिद्धराज जयसिंह द्वारा सम्मानित तथा कुमारपाल के गुरु थे। आपकी अगाध विद्वत्ता के कारण आपको 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि प्राप्त थी । आपने 'सिद्ध हैम' नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ के अलावा, द्वयाश्रय काव्य और अन्य कई विषयों पर प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा । आपके व्याकरण के सात अध्यायों में संस्कृत का, आठवें अध्याय में चतुर्थ पाद के ३२९वें सूत्र से लेकर अन्तिम ४४८वें सूत्र तक अपभ्रंश का व्याकरण लिखा गया है। अपने ब्राचड को सिन्धु देश की भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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