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________________ ३२ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृदद् इतिहास 'अम्हे निन्दहु कोवि जणं अम्हई वण्णइ कोवि अम्हे नन्दहु केवि नवि, नम्हई वण्णहु इसका हिन्दी रूपान्तर कितना स्पष्ट है केवि ।' 'हमें निन्दो कोई जन, हमें बरनो कोई । हमें निंदे कोई ( को ) भी नहीं, न हम बरने कोई ।' इसको गुजराती में इस प्रकार रखा जा सकता है 'अमने निन्दो कोइ जन, अमने बखाणो कोइ, अमेनिन्दिने कोइ ने पण नहीं, न अमे बखाणिये कोइ ।" यहाँ अम्हे - अम्हइ में पहला कर्म और दूसरा कर्त्ता का रूप है और अपभ्रंश तथा मरु गुर्जर की घनिष्ठता का परिचायक है । अथवा हेमचन्द्र के उदाहरण नाना परिस्थितियों और रसों की मनोरम झल-कियाँ प्रस्तुत करते हैं जैसे - 'विट्टि मइ भणिय तुहं मां कुरु बंकी दिट्ठि । पुत्ति सकण्णी मल्लि जिव मारइ हियइ पइट्ठि | " इस दोहे में 'विट्टिओ' सम्बोधन का रूप है और पट्टि प्रविष्ट से बना है जिसका गुजराती और हिन्दी रूप 'पैठि' आज भी प्रचलित है । इसी प्रकार 'अम्हइ' शब्द हिन्दी में हम, राजस्थानी में 'म्हे' और अमे रूप में मिलता है । इसी प्रकार कुछ मुहावरे भी अपभ्रंश से मरु - गुर्जर तक चले आये हैं जैसे 'निद्दन अम्ब न तेम्ब' में अम्ब - अम और तेम्ब - तेम ( तिमि, इमि) आदि रूपों में गुजराती और हिन्दी में प्रचलित है । प्रबन्ध चिन्तामणि के प्रसिद्ध दोहे 'नव जल मरिआ मग्गडा गर्याणि धड़क्कइ मेहु' में मरिया, मगडा आदि शब्द पूर्वापर सम्बन्ध के अच्छे सूचक हैं । प्राचीन सुभाषित से एक दो उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने की चेष्टा करूँगा कि किस प्रकार अपभ्रंशों से क्रमशः मरुगुर्जर की काव्य भाषा रूप निखरा था । " लूगाह घूणाह कुमाणु सह ओ त्रिहु अक सहाव । जिहि जिहि करउ अवासउ तिहि-तिहि भंजउ ठांव ।' ताइ, तेली, तेरयो. तेबोली तलारु । पंच तकारा परिह से पछे करो विवहार ॥' इत्यादि इनकी भाषा निश्चय ही पुरानी हिन्दी के करीब है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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