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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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राजुल से नेमि की सुन्दरता की वड़ाई करती हुई सखियाँ कहती हैं :
'कानेय कुंडल तपि तपिरे, मस्तक छत्रि सोहंति,
सामला व्रण सोहामणु रे, सोइ राजुल तोरुकंत।। इसमें गांसु, काइंकरु, नीकल्यारे, तिहां, आयणा आदि राजस्थानी शब्द प्रयोगों की बहुलता है।
मल्लिनाथगीत में केवल ९ छन्द हैं जिसमें तीर्थंकर मल्लिनाथ के गर्भ, जन्म, वैराग्य, ज्ञान और निर्वाण का संक्षिप्त वर्णन है। इसका अन्तिम छंद देखिये :
'ब्रह्म यशोधर वीनवी हूँ, छवि तह्म तणु दास रे, . गिरी पुरय स्वामीय मंडणु श्री संघ पूरवि आस रे। ब्रह्म यशोधर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पूर्वक संयम का पालन करते रहे । अन्त में आपकी महत्त्वपूर्ण रचना बलिभद्रचौपइ के कुछ उद्धरण दिये जा रहे हैं। सर्वप्रथम कवि ने अपनी अल्पज्ञता और गुरु के आशीर्वाद का माहात्म्य लिखा है, यथा
'न लहुं व्याकरण न ल हुं छंद, न लहुं अक्षर न लहुं विन्द, हूं मूरख मानव मतिहीन, गीत कवित्त नवि जाणूं कही। मूरख पणि जे मति लही, करि कवित्त अतिसार,
ब्रह्मयशोधर इम कहि ते सहि गुरु उपगार । इसमें द्वारका नगरी का वैभव, यादवों का मदपान एवं उन्मत्त होकर द्वैपायन मुनि को चिढ़ाना तथा उनके शाप से द्वारका के भस्म होने का प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया गया है। मदपान से उन्मत्त यादवों के बारे में कवि कहता है :
'एक नाचि एक गाई गीत, एक रोइ एक हरखि चित्त, एक नासि एक उंडलि धरि, एक सूइ एक क्रीडाकरि । इणि परि नगरी आविजिसि, द्विपायन मुनि दीठ तिसि,
कोप करीनि ताडिताम, देइ गालवली लेइ नाम ।" इस दुर्घटना की चेतावती नेमि कुमार ने पहले ही दी थी किन्तु कृत कर्मों का बन्ध बिना भोगे नहीं कटता अतः परिणाम भुगतना ही पड़ता है। इन रचनाओं के अलावा वैराग्य गीत, विजयकीर्ति गीत एवं २५ से भी अधिक १. डॉ० क० च० कासलीवाल-राजस्थान के जैन संत, पृ० ८४-८५-८६ २. वही, पृ० ९१
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