________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४५९ 'गोयम गणहर पय नमी अ, सामिणी सरसत्ति, सरस वाणी अविरल दीइ, आराहिसु भत्ति । पमणिसू मंगलकलश रास, सांभलउ रसाल ।
पुण्य प्रमाणिइं पामीय मंगल सुविशाल ।' इस में गुरु जिनरत्नसूरि का सादर स्मरण किया गया है, यथा'बड़तपे गच्छ केरो शृगार, श्री जिनरत्नसूरि सुगुरु उदार, तास सीस अणीपरि भणइ, मंगल वावी भवीअणजे सणइ ।'
इन दोनों रचनाओं की भाषा मरुगुर्जर है जिसमें गुजराती का प्रभाव मरु की अपेक्षा अधिक है। लगता है कि ये रचनायें गुजरात में ही लिखी गई हैं । इनके लेखकों का नाम अनिश्चित है। दोनों रचनाओं का नाम एक है किन्तु कथा संयोजन और प्रस्तुति दोनों की स्वतन्त्र है। दोनों के दो लेखक प्रतीत होते हैं।
यशोधर-आपने प्राचीन हिन्दी अथवा मरुगुर्जर में काफी लिखा है. किन्तु इतिहास ग्रन्थों में आपके सम्बन्ध में बहुत कम लिखा गया है । आप काष्ठासंघ के संत सोमकीर्ति के प्रशिष्य एवं विजयसेन के शिष्य थे। युवावस्था में घर छोड़कर शास्त्राभ्यास एवं संत सेवा प्रारम्भ की और आजन्म लोकमंगल के कार्य में लगे रहे। आप कबीर, सूर आदि की तरह अच्छे. गायक थे और पद बनाकर लोगों को सुनाते थे। आपको काव्य रचना की प्रेरणा सोमकीर्ति, विजयसेन और यशःकीति से मिली जिनका अपनी रचनाओं में इन्होंने सादर स्मरण किया है।
ये नेमिनाथ के जीवन से अत्यधिक प्रभावित थे अतः नेमि-राजुल पर अधिक साहित्य सर्जन किया है। यद्यपि ये साधु थे किन्तु साहित्यिक रुचि सम्पन्न व्यक्ति थे अतः आवश्यकतानुसार शृगार आदि रसों का उत्तम वर्णन किया है।
भट्टारक सोमकीर्ति को समय सं० १५२६-१५४० के बीच माना जाता है, इनका भी इसी अवधि में जन्म होना चाहिये। इनकी दो रचनाओं में सं० १५८१ और सं० १५८५ का निर्देश हुआ है अतः अनुमान होता है कि सं० १५३० से लेकर १६०० तक आपका जीवन काल रहा होगा। इस अवधि में आपने मौलिक साहित्य लिखा और प्राचीन साहित्य की प्रतिलिपियाँ तैयार की। जिस गुटके में इनकी रचनाओं का संग्रह मिला है वह १. श्री देसाई-जै० गु० क-भाग ३, पृ० ४९०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org