________________
४५८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास खण्ड में दिया जायेगा। आपकी अब तक शायद कोई काव्यकृति उपलब्ध नहीं है किन्तु यह संभव नहीं कि इतने बड़े लेखक ने एक भी काव्य रचना न की हो, शायद वह अभी ग्रन्थ भण्डार के वेष्ठनों में आवृत हो। आप खरतरगच्छीय वाचनाचार्य रत्नमूर्ति के शिष्य थे।' ___ मंगलधर्म या मंगलाधर्म-आप रत्नाकरगच्छ के आचार्य जयतिलकसूरि की परम्परा में उदयधर्म के शिष्य थे। आपने सं० १५२५ में 'मंगलकलश रास' की रचना की। श्री देसाई ने जै० गु० क. भाग ३ में धर्म के सामने ज्ञानरुचि नाम लिखकर उसपर भी प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। मंगलधर्म ने अपने मंगलकलशरास का प्रारम्भ इस प्रकार किया है :'आदि जिणवर जिणवर सुखदाता र, संति जिणेसर संतिकर, नेमिनाथ
सोभाग सुन्दर। पास जिणंद विघनहर वर्द्धमान कल्याण मंदिर, पंचतीर्थंकर सुगुरु नमो
सरसती अम्बिका देवी समरवि मंगलकलशहु चरित्र भणिसु संखेवि ।'
गुरु परम्परा के सन्दर्भ में कवि रत्नाकरगच्छ के आचार्य जयतिलक रत्नसिंह, उदयवल्लभ, ज्ञानसागर और उदयधर्म का उल्लेख करता है
'मुनिवर वाचक श्री उदयधर्म, जाणिउ आगम शास्त्रह मर्म, तास पसाइ फलइ कर्म, ज्ञानरुचि भणइ मंगलधर्म
इसमें 'भणइ' क्रिया का कर्ता मंगलधर्म प्रतीत होता है न कि ज्ञानरुचि । ज्ञानरुचि शब्द का सम्बन्ध फलइ क्रिया से हो सकता है। अस्तु, कवि ने रचना काल बताते हुए लिखा है :
'मंगलकलश तणी चउपइय, संवत पनर पंचवीसइ हइय । पढ़इ गुणइ संभलइ विचार, तस घरि उच्छव जय जयकार ।
अज्ञात कवि कृत-'मंगलकलशरास'-वडतपगच्छीय जिनरत्नसूरि के किसी शिष्य द्वारा सं० १५३२ से सं० १५८२ के बीच यह रास लिखा गया जिसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है :१. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा प०७१
श्री मो० द० देसाई-जैन सा० नो इतिहास प० ५२२ २. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० ५९ और देसाई-जै. गु० कवि-भाग १,
१० ५९-६० ३. श्री देसाई-ज० गु० क०-भाग ३, पृ० ४८९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org