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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४५७ 'सुगुरु पसाई नयर गोआलेर, घणी पुण्यसार रिद्धिइं कुबेर, तासु गुण इम वर्णबई अजस्र, साधु मेरु गणि पंडित मिश्र ।' तस चरित्र करी प्राकृतई फेर, इम बोलइ गणि साधु समेर ।'
नाम मेरु या सुमेरु होगा, पंडित, साधु, गणि, मिश्र आदि उपाधियाँ हैं जिनका उपयोग कवि प्रसन्नता पूर्वक अपने नाम के साथ प्रायः करता है । रचनाकाल –'आसाढ़ादि पनर अकोत्तरइ, पोस वदिइ ग्यारिसि अंतरइ,
धंधूकपुरि कृपारस सत्र, सोमवार समर्पिउ चरित्र ।' इस कथा का प्रारम्भ गौतम गणधर और श्रेणिक की वार्ता के बजाय आ० हेमचन्द्र और कुमारपाल के प्रश्नोत्तर से हुआ है। इसकी भाषा में मुहावरे और कहावतों के प्रयोग से शैली प्रभावशाली हो गई है, यथा :
'अन्नाशाह उवओसड उ, निफल होइ न तंति,
पाणी घणू विलोडई कर चुपड़ा न हुंति । रचना सरस है, शैली प्रभावशाली है. जिसके आवेष्ठन में उपदेश भी रोचक और सुग्राह्य हो गया है। दो पंक्तियाँ देखिये :
'पुण्यसार गुण श्री तणउं प्रबन्ध, आश्चर्यकारी उ भलउ संबंधि, जीवदया दृष्टान्त पदीक, जिम जिम सुणीइ तिम रसीक ।६०१।
मेलिग -आप १६वीं शती के अन्तिम चरण के कवि हैं, आप तपागच्छीय मुनि सुन्दरसूरि के शिष्य थे। उनकी आज्ञा से आपने सं० १५७१ में 'सुदर्शन रास' की रचना की। रचना काल का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
'संवत पनर एकोतरइ एम्हा जेठह चउथि विशुद्धि सुणि, पुष्प नक्षत्र गुरुवारि से एम्हा, चरित्रए पुहति प्रसिद्ध सुणि ।२२।३ .
इस रास की प्रति पाटण के जैन भण्डार तथा प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान राजस्थान में उपलब्ध है।
मेरुसुन्दर उपाध्याय - (रचना काल सं० १५१८-सं० १५३८)-आप इस शताब्दी के संभवतः अति समर्थ गद्यकार हैं। आप की बीसों भाषा टीकायें, बालावबोध आदि गद्य रचनायें उपलब्ध हैं जिनका विवरण गद्य१. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा, पृ० ५७ और श्री मो० द० देसाई
जै० गु० क०-भाग ३, पृ० ४५२ २. डॉ० क० च० कासलीवाल-म० कविवर बूचराज एवं उसका समय पृ० ३
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