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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आगे प्रश्न चिह्न लगाकर भावप्रभ नाम बताया है अतः यह निश्चय नहीं "हो पाता कि रचनाकार मूलप्रभ हैं या भावप्रभ, अथवा दोनों एक ही व्यक्ति हैं। इसमें गजसुकुमाल की कथा दी गई है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नाङ्कित हैं "देस सोरठ द्वारापुरी, नमउ तिहाँ वासुदेवू ओ, दसइ दसार सिऊ राजिउ, बंधव श्री वलदेवू अ, जीरे जीरे स्वामी समोसर्या, हरषिउ गोपीनाथू ओ, नेमिजी वंदणि अलजयु, अलज्यो यादव साथू मे।''1 इसमें काव्य सौष्ठव पाया जाता है। विप्रलम्भ शृङ्गार की निम्न 'पंक्तियां देखिये 'रयणी वइरणि नवि जाद्ध, सूतां साथ रइ, कंअर कंअर झखी भणइ ओ, रयणि किम नकि जाइ, चंदा रथ खेडिलाइ, तुवेगि थइ हूं हइ आनन्द हेजि प्रहि ऊगम मिलू, कुअर नइ अलजइ ओ।"2 प्रति अपूर्ण होने के कारण इसके अन्त के छन्दों का उद्धरण नहीं प्राप्त हो सका । अतः रचनाकार और रचना से सम्बन्धित अन्य अपेक्षित विवरण भी नहीं मिल सके। (साधु) मेरुगणि-आप आगमगच्छीय साधु थे। आपने सं० १५०१ पौष वदी १२ को जीवदया के माहात्म्य पर 'पुण्यसारचरित्र' की रचना की । पुण्यसारचरित्र जीवदया के दृष्टान्त-रूप में वर्णित है । जीव दया पर प्रकाश डालता हुआ कवि कहता है "जीवदयानी हियइ धरउ बुद्धि, जीवदया पालउ मन शुद्धि, जीवदया लगइ निरन्तर वृद्धि, जीवदया पालिइ सर्व सिद्धि।''3 लगता है कि आपका नाम सुमेरु या मेळ था, साधु और गणि शोभार्थ आगे पीछे बाद में जोड़े गये होंगे। कवि ने अपना नाम इस प्रकार लिखा है :१. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० ९५ तथा भाग ३, पृ० ५२३ २. वही ३. वही भाम ३, पृ० ४३२, श्री अ० च० नाहटा–परम्परा पृ० ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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