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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४५५ माणिकसुन्दरगणि-आप वृद्धतपागच्छीय भट्टारक रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे। आपने मलधारी हेमचन्द्रसूरि कृत भवभावनासूत्र पर सं० १५०१ में बालावबोध की रचना की थी। कुछ लोग इसे सं० १५६३ की रचना बताते हैं। यह रचना देलवाड़ा (उदयपुर) में हुई । इसका विवरण गद्यखण्ड में दिया जायेगा। श्री अ० च० नाहटा ने माणिकसुन्दर की एक रचना 'नेमिश्वरचरित्र' का उल्लेख मात्र किया है, उसका कोई उद्धरण या विवरण नहीं दिया है अतः यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उपरोक्त गद्यकार माणिकसुन्दरगणि ही 'नेमिश्वरचरित्र के भी लेखक हैं किन्तु यह पूरी संभावना है कि दोनों एक ही व्यक्ति हैं।
१५वीं शताब्दी में एक माणिकसुन्दर गणि. हो गये हैं जो मेरुतुग के शिष्य थे । इन्होंने १४७० के आसपास ‘चन्द्रधवलधर्मदत्त कथा' की रचना की। इनका विवरण यथास्थान दिया जा चुका है। उसी शताब्दी में माणिकसुन्दरसूरि' नामक प्रसिद्ध गद्यकार हो गये जिन्होंने सं० १४७८ में पृथ्वीचन्द्रचरित्र-वाग्विलास' की रचना की थी। इनका विवरण भी गद्यखण्ड में दिया जायेगा। इस प्रकार १५वीं-१६वीं शताब्दी में माणिकसुन्दर नाम के प्रायः चार लेखकों का पता लगता है किन्तु इनमें से १६वीं शताब्दी के माणिकसुन्दर गणि की मात्र एक काव्यकृति नेमिश्वरचरित्र की ही सूचना मिलती है अन्य विवरणों का अभाव है।
मुनिचन्द्रसूरि -आप पूर्णिमागच्छ की भीमपल्ली शाखा के विद्वान लेखक थे। आपकी रचना 'रसाउलो' और रात्रिभोजनसज्झाय' में से 'रसाउलो' प्राकृत भाषा की है। अतः इसके विवरण की अपेक्षा नही है। दूसरी रचना 'रात्रिभोजनसज्झाय' पूर्णतया उपदेशपरक रचना है जिसमें रात्रिभोजन के दोषों का निरूपण किया गया है। इसकी रचना सं १५५७ के आसपास हुई । इसकी भाषा सरल है।'
मूलप्रभसाधु--(भावप्रभ) आपने सं० १५५३ में गजसुकुमालसंधि' की रचना की। श्री देसाई ने जै० गु० क०-भाग ३ में रचनाकार मूलप्रभ के. १. देसाई-जै० गु० क०-भाग ३, खंड २, पृ० १५७९ २. श्री अ० च० नाहटा-जै० म० गु० क०-१० १६ क्रम सं० २०५ ३. देसाई-जै० गु० क०-भाग १, पृ० ३५ ४, वही
-भाग ३, खंड २, प० १५७३ ५. वही
-भाग १, पृ० १३९ .
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