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________________ ४४८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भुवन कीर्ति थीर थाये, कलावति गुण गाये, दुःख दलिद्र टले ओ संपदासविमिले । जे भणे मनरंग विलसे सुख ते अंग, शील सांनिध करे, ओ जिम मनि गहगहे ।। इसमें नन्नसूरि का उल्लेख है जो कोरंटगच्छीय सर्वदेवसूरि के शिष्य थे। इन्होंने विचारचौसठी' आदि अनेक रचनायें लिखी। इनकी (भुवन कीर्ति) की भाषा सरल मरुगुर्जर है। एक उदाहरण देखिये : 'वीर जिणेसर पयनमी, समरी गोयम सामिरे, चरित गाउ कलावती तणु. सील गुण करि अभिराम रे । मतिसागर-आगमगच्छ के आचार्य सोमरत्नसरि की परम्परा में गुणनिधान, उदयरत्न के शिष्य गणमेरु के आप शिष्य थे। आपने सं० १५९४ में लघुक्षेत्रसमासचौ०' पाटण में लिखी। 'संग्रहिणीढालवंध' नामक एक अन्य रचना के लेखक भी आगमगच्छीय गणमेरु के शिष्य मतिसागर कहे गये हैं, किन्तु इसका रचना काल सं० १६७५ बताया गया है । एक ही कवि ८१ वर्ष बाद दूसरी रचना करे यह विश्वसनीय नहीं है। इस रचना में रचना का समय इस प्रकार बताया गया है :_ 'संवत सोलपंचोतरइ पोष मास उदार' इसका अर्थ संवत् १६७५ के बजाय सं० १६०५ उचित होगा, तब दोनों रचनाओं में केवल १०-११ वर्ष का अन्तराल रह जायेगा, जो संभव है। श्री देसाई ने भी जैन गु० क० भाग ३ में अपने पूर्व कथन को सुधार कर रचनाकाल सं० १६०५ ही लिखा है। अतः प्रस्तुत मतिसागर की ही उक्त दोनों रचनायें सिद्ध होती हैं। क्षेत्रसमासचौ०- इसमें जैनधर्म के मूल सिद्धान्त संक्षेप में बताये गये हैं । प्रारम्भ सरस्वती की वंदना के बाद गुरु परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया गया है'सरसति सामिणी करू जहार, जेहना गण अप्पारावार, ते सरसति नुध्यानज धरी, रचसिउं चुपै हरसिइं करी । आगम गछि गुरुआ गुरुराय, श्री सोमरयण सूरि वंदू पाय, १. श्री माई - जैन गु० क ---भाग १, ५० १३४ और भाग ३ प० ५७४ २ वही ३. देसाई -जै० गु० क०, भाग १, पृ० ४९६.४९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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