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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
इसका प्रारम्भिक छन्द इस प्रकार है
'तरुणपणइ जोवन मदिइ, हो तरीय चडी वनि जाइ, सजीव विणासरी, इम खटवट हो नीगमइ काई १।'
इसका नाम रास से अधिक उपयुक्त गीत हो सकता था । वस्तुतः यह पाँच कड़ी की गेय रचना मरुगुर्जर का गीत है ।
भ० भुवनकीर्ति - आप भ० सकलकीर्ति के शिष्य थे । भट्टारक सम्प्रदाय में इन्हें सं० १५०८ में भट्टारक होना लिखा है । आपको संस्कृत, प्राकृत, गुर्जर आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था, आप विविध शास्त्रों के ज्ञाता थे । ब्रह्मजिनदास ने लिखा है कि ये परमकीर्तिवान भट्टारक थे । उन्होंने अपने रामचरित्र काव्य में इन्हें परमज्ञानी और संयमी बताया है । भ० शुभचन्द्र, भ० सकलभूषण, भ० रत्नचन्द्र, भ० ज्ञानकीर्ति ने भी इनका यश:गान किया है इससे यह स्पष्ट है कि ये महान् जैनाचार्य थे । आप स्वयं विद्याभ्यासी थे और आपने अनेक शिष्यों को विद्याभ्यास कराया, एवं उत्कृष्ट विद्वान् बनाया । इस प्रकार आपने स्वयम् और अपने शिष्यों द्वारा जैन-धर्म और साहित्य की महती सेवा की ।
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रचनायें - आपने जीवंधररास, जंबूस्वामीरास अंजनाचरित्र आदि उल्लेखनीय कृतियों की रचना कर जैन साहित्य की श्री वृद्धि की । " साहित्य सृजन के अलावा आपने कितने ही स्थानों पर प्रतिष्ठा विधान सम्पन्न कराया तथा प्राचीन मंदिरों, प्रतिमाओं का जीर्णोद्धार कराया, इसमें चौबीसी की प्रतिमा प्रतिष्ठा सं० १५११, चतुर्विंशति प्रतिमा प्रतिष्ठा सं० १५१३ और गाधारपुर प्रतिमा की प्रतिष्ठा सं० १५१५ उल्लेखनीय घटनायें हैं ।
भुवनकीर्ति- आप कोरंटगच्छीय कक्कसूरि के शिष्य थे । आपने सं० १५८० में 'कलावतीचरित्र' का निर्माण खंभात में किया । इसमें कलावती के पावनचरित्र का वर्णन सरल मरुगुर्जर भाषा में किया गया है। गुरु परम्परा और रचनाकाल का वर्णन इन पंक्तियों में किया गया है :
'पनरअसी बरसामी मृगसर शुदी पंचमी, दिवस थंभतीरथ भले गुरुदिननिर्मल ।
कोरंट गच्छ नन्नसूरि सुपट्टी श्री कक्कसूरि, ताससीस इमभणे, ओ उलट आपणे ।
डा० क० च० कासलीवाल - राजस्थान के जैन संत पृ० १७५-१८०
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