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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४४५ चैत्यपरिपाटी-( ४४ गाथा ) का रचनाकाल इस प्रकार बताया गया
'वंछित ए दानद समरथ तीरथमाल विवहपुरे,
एम करीए निरमल जुत्त, संवत पनर वासट्ठिवरे ।'४३। इसके प्रारम्भिक पद्य देखिये :
'प्रणमसिउं पहिलु पास जिणंद, चैत्य प्रवाडि करिस आणंदि, श्री चीत्तोड़ तणी जिनयात्र, करीय करूनिय निरमल गात्र ।। पाटण थकी मझ इछा इसी, भाव भगतिवि हइडि बसि,
कतियापुर देहरा छि पंच, प्रणमाता नवि करीइ खंच ।२।। इसकी भाषा में एम, छि आदि गुजराती प्रयोग अवश्य हैं किन्तु यह रचना मरुगुर्जर भाषा की है। नवतत्त्व चौ० --रचना काल और स्थान का निर्देश इन पंक्तियों में है
संवत् पनर पहुतरि वरसि, श्री पत्तनि हइ आनइ हरसि,
श्री संघनइ आग्रहि चउपइ, कीधी भाविइ भगतई थइ। रचनाकार ने भावसागर को गुरु कहा है, यथा
'इय सोहग सुन्दर सूरि पुरंदर भावसागर गुरु गछधर, पय पउम पसाई कवित कराई पाप पलाइ दूरितर। जे भवियण भावई सरल सभावइ भणइ गुणइ नवतत्त्ववर,
ते लहसइं सिद्धी वंछित रिद्धि निरमल बुद्धि विबुधवर ।५९।' यह रचना पाटण में की गई अतः इस पर गुजराती प्रभाव स्वाभाविक है। इस रचना में भावसागर सूरि के दीक्षा गुरु जयकेसर सूरि का भी उल्लेख है अतः नवतत्व चौ० का लेखक अंचलगच्छीय भावसागरसूरि का ही शिष्य है। 'इच्छापरिणामचौ०' भी उन्हीं की कृति है किन्तु 'चैत्य परिपाटी' के सम्बन्ध में असंदिग्ध रूप से यह कहना कठिन है कि उक्त दोनों रचनाओं के प्रणेता भावसागर सूरि के शिष्य की ही यह भी कृति है। संभव है कि यह भावसागरसूरि के किसी अन्य शिष्य की रचना हो, या ये भावसागर भी दूसरे हों। यह प्रश्न भी विद्वानों से समाधान की अपेक्षा रखता है। १. श्री अ० च० नाहटा-जै० म० गु० कवि, प० १४० २. श्री देसाई १० गु० क० भाग ३, पृ० ५७२
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