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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पास वीर बंदु सदा सयल सुख सेवक दायकु चौबीसह पाओ नमि, करिसू कवित अति चंग
भावकलश मुनिवर कहइ, सुणता हुइ नवरंग। वस्तु के बाद चौपाई छन्द का प्रयोग किया गया है, यथा
'कृतकर्म पुरुषा तणउजे चरी, बाधई पुण्यहं पणासइ दूरी,
जिण पूरव भवि दीघउ दान, पात्र प्रभावइ सीधो काम ।४।' प्रति के त्रुटित होने के कारण इस रचना से सम्बन्धित विवरण और लेखक के बारे में कोई विशेष सूचना नहीं प्राप्त हो सकी। उद्धरण देखने से यह रचना निश्चित रूप से मरुगुर्जर की सिद्ध होती है।
भावप्रभ इनके सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाओं के लिए 'मूलप्रभ' का विवरण देखा जा सकता है। ___ भावसागरसूरि शिष्य - नवतत्त्वरास सं० १५७५ और 'इच्छापरिणाम चौ०' सं० १५९० नामक दो रचनायें भावसागरसूरि के किसी अज्ञात शिष्य द्वारा रची गई हैं। श्री देसाई ने जै० गु० क० भाग १ में इनका कर्ता भावसागर को ही बताया था किन्तु भाग ३ में पूर्व कथन का संशोधन करके इनका कर्ता भावसागर के किसी शिष्य को बताया है। अतः ये रचनायें भावसागर सूरि की न होकर उनके किसी शिष्य की ही हैं। श्री नाहटा ने भावसागर सूरि के किसी शिष्य की एक अन्य रचना 'चैत्यपरिपाटी' का विवरण दिया है। किन्तु यह पता नहीं कि यह शिष्य नवतत्त्वरास का कर्ता ही है या अन्य कोई शिष्य है। जो हो, इन तीनों रचनाओं का विवरण एकत्र यहाँ भावसागर सूरि शिष्य के अन्तर्गत दिया जा रहा है। 'चैत्यपरिपाटी' सं० १५६२ की रचना है और इसके कर्ता भावसागरसूरि के शिष्य को विधिपक्षीय बताया गया है। भावसागरसूरि अंचलगच्छ के ६१वें पट्टधर थे। इन्हें आचार्य पद सं० १५६० में मिला था अतः सं० १५६२ में लिखी 'चैत्यपरिपाटी' इनके समय की रचना है। इनका स्वर्गवास सं० १५८३ में हुआ था अतः यह भी निश्चित है कि इच्छापरिणामचौ० जो सं० १५९० की रचना है, इनकी नहीं हो सकती, यह निश्चय ही उनके किसी शिष्य द्वारा उनके स्वर्गवास के बाद लिखी गई होगी। १. श्री देसाई -जै० गु० क०-भाग ३, खण्ड २, पृ० १५००-१५०१ २. वही, भाग ३, पृ० ५७२ ३. श्री अ० च० नाहटा-जै० म० गु० क०, पृ० १४०
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