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मरु-गुर्जर जैन साहित्य भानुचन्द्र-(भाणचन्द्र) लोंकागच्छीय विद्वान् थे। आपकी रचना 'दयाधर्म चौपइ' सं० १५७८ में लिखी गई। इसमें २५ कड़ी है और यह प्रकाशित है। 'श्रीमान्लोकाशाह' नामक ग्रन्थ के पृ० २३४ से २३७ पर यह रचना दी गई है। इसका प्रथम छंद इस प्रकार है
वीर जिणेसर प्रणमिपाय, सुगुरु तणु लहलो मुपसाय,
भष्म ग्रहनो रोष अपार, जाइ न धरम पडियो अंधकार ।' इसमें अनेक ऐतिहासिक सूचनायें दी गई हैं । यथा
"चौदसय व्यासी वइसाखइ, वद चौदस नाम लुको राखइ, आठ बरिस नो लुको थयो, सा डुगर परलोकइ गयो । दया धर्म जह हलती ज्योत, सा लुके कीधउ उद्योत, पनर सय वतीसउ प्रमाण, सा लुको पाम्यो निरवाण। पनरसय अठयोत्तर जाणउं माघ शुदि सातमप्रमाणउ,
भानुचन्द यति मति उल्लसउ दयाधर्म लुके विलसउ ।२५।" इस प्रकार यह लोकमत के प्रवर्तक लोकाशाह की जीवनी पर प्रकाश डालने वाली महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कृति है। १६ शताब्दी में लोकाशाह का धार्मिक आन्दोलन सर्वविदित है । इसकी भाषा सरल मरुगुर्जर है।
भाव-(उपाध्याय) आप ब्रह्माणगच्छीय बुद्धिसागरसूरि की परम्परा में गणमाणिक के शिष्य थे। आपने हरिश्चन्द्रप्रबन्ध, और अंबडरास नामक रचनायें लिखीं । इन दोनों रचनाओं का कर्ता श्री देसाई ने 'गुणमाणिकशिष्य' को बताया था किन्तु भाग ३ में उन्होंने उस शिष्य का नाम भाव बताया है । हरिश्चन्द्रप्रबन्ध (३५० छन्द) मंगलाचरण
"सरसति सामणि वीनवू त्रिभुवन जणणी माय, रचू चरित्र हरिचंद तणू, ब्रह्म पसाय । कृपा करुमझ स्वामिनी, वंछित दायक देव,
एक मनु नतु उलगु, सदा करु तम्ह सेव ।" अन्तिम छन्द "रुक्मागंद सगालपुरि, अविचल जिम होय,
ते मति आपो मुझ वली. कहइ हरिचंद सोय, चौपइ तिणि अवसरि दीठा साध, धर्म सुणी मति संजम लाध ।
स्त्रीय पुत्र सहित परिवार, संजम धारी सिव सुखकार । १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भा० ३, पृ० ५७४ २. वही,
भाग १ पृ० १७१
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