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४४० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद इतिहास आपका प्रवेशोत्सव डूगरसी ने कराया था। बादशाह सिकन्दर लोदी द्वारा आपके सम्मान से सम्बन्धित पंक्तियाँ देखिये :
"तंबोल दिधउ सुजस लीधउ इसी बात घणी सुणी,
श्री सिकन्दर बादशाह बड़इ दिल्लीनउ धणी ।११।" रचना का प्रारम्भिक छन्द निम्नांकित है
सरसति मतिदिउ अम्ह अति घणी सरस सुकोमलवाणि,
श्री मज्जिनहंस सूरि गुरु गाइसिउ, मन लीणउ गुण जाणि ।' दो ऐतिहासिक महत्त्व के प्रसंग इन छंदों में हैं। बंदी छुड़ाने का प्रसंग देखिये:
"वंदि छोडि मोटउ विरुद लाधउ, बादशाहे परखिया,
श्री पासनाह जिणंद तुट्ठउ, संघ सकलइ हरखिया । पाटोत्सव का वर्णन देखिये
'पाट उत्सव लाख बेची (पिरोजी) कर करमसिंह करावए ।
गुरु ठामि ठामि विहार करता, आगरा जब आवए। अन्तिम छन्द-'श्री भक्तिलाभ उवझाय बोलइ भगति आणी अति घणी,
श्री जिनहंससूरि चिरकाल जीवउ, गच्छखरतर सिर धणी ।' आपके शिष्य चारुचन्द्र भी अच्छे कवि थे, इनकी चर्चा पहले की जा चुकी है।
भक्तिविजय ---सं० १५२२ में रचित चित्रसेनपद्मावतीरास' का इन्हें जै० गु० कवि भाग १ पृ० ५६ में लेखक कहा गया है किन्तु श्री देसाई जी ने भाग ३ में ( पृ० ४८४ ) सूचित किया है कि वस्तुतः १५२२ में चित्रसेनपद्मावतीचरित्र की रचना मुलतः संस्कृत में पाठक राजवल्लभ ने
की थी। अतः उसी वर्ष मरुगर्जर में उसी कथा पर उसी नाम से भक्ति विजय की यह रचना संभव प्रतीत नहीं होती। अवश्य कहीं कुछ भूल हो गई है। एक भक्तिविजय १८वीं शताब्दी में नयविजय के शिष्य हुए हैं जो अच्छे गद्यकार भी थे। उनका विवरण यथास्थान दिया जायेगा। १. ऐ० जे० काव्य सं०-प० ५३ २. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० ६५ ३. वही जे० म० गु० क० १० १३९
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