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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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सूहउ राग में निबद्ध इस गीत में संसार का स्वरूप समझाया गया है। आपकी भाषा को डॉ० कासलीवाल ने हिन्दी कहा है । वस्तुतः गुलेरी जी ने भी इसे पुरानी हिन्दी ही कहा है। किन्तु जैसा अन्यत्र कई बार कहा जा चुका है कि पुरानी हिन्दी और मरुगुर्जर में कोई मौलिक अन्तर नहीं है, दोनों प्रायः पर्यायवाची हैं, अतः महाकवि बूचराज हिन्दी या मरुगुर्जर के श्रेष्ठ कवि हैं।
बुधराज!—(कचराय) नामक हिन्दी कवि की सूचना श्री देसाई ने जैन गुर्जर कवियों पृ० ५७९ पर दी है। उनकी रचना का नाम भी मदनयुद्ध या मदनरास है जो सं० १५८९ में लिखी गई है। ब्रह्मबूचा के मयणजुज्झ का निर्माणकाल भी ठीक सं० १५८९ ही है। ब्रह्मबूचा की भाषा को डॉ० कासलीवाल हिन्दी बताते हैं यद्यपि श्री देसाई ने इन्हें हिन्दी कवि घोषित कर दिया है पर ये हमारे बूचराज जी ही हैं। उद्धरणों के मिलान से भी यही बात सिद्ध होती है। अतः बुधराज या कचराय भी बूचा, वल्ह, वील्ह के ही नामान्तर प्रतीत होते हैं ।
भक्तिलाभ-खरतरगच्छ के प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय जयसागर के प्रशिष्य और जिनसिंहसूरि के शिष्य भक्तिलाभ उपाध्याय भी इस शताब्दी के अच्छे विद्वान् थे। इनकी कल्पान्तरवाच्य, बालशिक्षा आदि संस्कृतरचनाओं के अतिरिक्त लघुजातक नामक ज्योतिष ग्रन्थ की टीका ( सं० १५७१ बीकानेर ) भी प्राप्त है । आप मरुगुर्जर के उत्तम कवि थे। आपने सीमंधरस्तवन, वरकाणास्तवन, जीरावलास्तवन और रोहिणीस्तवन आदि स्तवनों के अलावा श्री जिनहंससूरिगीत भी लिखा है। इस प्रकार आप एक सुकवि और अच्छे गद्यकार थे। गद्य में रचित आपकी 'वचनावली' आदि की चर्चा गद्यखण्ड में की जायेगी। आपकी 'श्रीजिनहंससूरिगुरु गीत' नामक छोटी रचना ( १८ गाथा ) ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह में प्रकाशित है। श्री जिनहंससूरि को सं० १५५५ में सूरि पद प्राप्त हुआ था और सं० १५८२ में उनका स्वर्गवास हो गया । अतः भक्तिलाभ का भी यही रचनाकाल होगा। गुरुगीत से ज्ञात होता है कि जिनहंससूरि सिकन्दर लोदी के समकालीन थे और उसे प्रभावित कर आपने ५०० बंदियों को मुक्त कराया था। आपकी रचना आचारांगदीपिका (सं० १५८२) प्रसिद्ध है। आपके सूरिपद का महोत्सव करमसिंह ने धूमधाम से किया था। आगरे में १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ५७९.५८०
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