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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४३७ राजुल की आंखों से आसुओं की झड़ी लगी रहती है, वह निरन्तर बाट जोहती रहती है । 'चडि मंडपे मंडिपि राजुल मग्गो नेहो लैवे,
मग्गो निहालै देवि राजुल नयण दह दिसि धावए ।
सर रसहि सारस रवणि भिन्नि दुसह विरहु जगवए।'' प्रस्तुत बारहमाले में कपि राजुल की विरह वेदना को मार्मिक शब्दों में व्यक्त करने में पूर्ण सफल हुआ है।
चेतनपुद्गलधमाल-यह १३६ पद्यों की एक महत्वपूर्ण संवादात्मक कृति है जिसमें चेतन और पुद्गल एक दूसरे पर वाक् प्रहार करते हैं। जड़ कहता है
'चेतन चेति न चालइ कहउ त मानैरोसु,
आपे बोलत सो फिरै जड़हि लगावहि दोसु, चेतन सुणु।' लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से भाषा अधिक चुटीली हो गई है, यथा
'अंधा बाटै जेवड़ी, पाछइ बाछा खाइ।' इसके अन्त में पांच छप्पय हैं। शेष रचना दीपक राग में लिखी गई है। यह रोचक संवादात्मक काव्य है जिसमें संवाद सजीव, भाषा-शैली प्रखर एवं प्रभावकारी है । . नेमिनाथ वसंतु... यह लघु रचना है जिसमें वसन्त का आध्यात्मिक वर्णन है। संयम श्री राजुल इस सुहावनी ऋतु में नेमि को देखती है कि जब संसार सोता है तब वे जागते हैं और मोह को भस्म कर चुके हैं। वह भक्तिपूर्वक नाना मनोहर पुष्पों द्वारा नेमिनाथ की अर्चना करती है। इस रचना का निर्माण मूलसंघ के भट्टारक पद्मनंदि के प्रसाद से हुआ, यथा
'मूल संघ मुखमंडण पद्मनन्दि सुपसाइ,
बील्ह वसंतु 'जि गावइ से सुखि रसीय कराइ ।' टंडाणा गीत-वनजारे बैलों पर वणिज्य-वस्तुयें लादकर चलते हैं उसे टांडा कहते हैं । कवि कहता है यह संसार ही एक टंडाणा है जिसमें दुखों का बोझ है । अतः जीव को कवि चेतावनी देता है कि बिना माया लोभादि को छोड़े सहज सुख की प्राप्ति कभी संभव नहीं है। कुछ पंक्तियां देखिये_ 'टंडाणा टंडाणा मेरे जीवड़ा, टंडाणा टंडाणा वे,
इहि संसारे दुख भंडारे, क्या गुण देखि लुभाणा वे । १. डा० क० च० कासलीवाल-क० बूचा ३, स०, पृ० ८७
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