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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसमें १२३ पद्य हैं जिसमें रंजिका, गीतिका, साटिक, रड्डा, गाथा, षट्पद, दूहा, पद्धडिया चंदाइण, त्रोटक आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है ।
इसमें नायक सन्तोष और लोभ प्रतिनायक है । एकबार भगवान् महावीर जब पावापुरी पधारे तो गौतम ने उनसे पूछा कि जीव लोभ से कैसे बचे तथा लोभ पर कौन और कैसे विजय प्राप्त कर सका ? महावीर बोले
'सुणहु गोइम कहइ जिणणाहु, यह सासणु विम्मलइ, सुणंत धम्मु भव बंध चुट्टहि ।
लोभ दुसइ इव जितयइ सन्तोखह परिसादि । "
इसी प्रश्न का उत्तर इस रूपक में दिया गया है । इसकी भाषा मयणजुज्झसे परिष्कृत होते हुए भी अपभ्रंश एवं प्राचीनता के पुट से पूर्णतया मुक्त नहीं है । अकारान्त की प्रवृत्ति और गाथाओं का प्रयोग अपभ्रंश के अवशिष्ट प्रभाव का द्योतक है । इसमें कवि ने अपना नाम वल्हि बताया है, यथा
'यहु सन्तोखहु जय तिलक जंपिउ वल्हि सुभाइ । मंगल चौबीस संघ कहु. करइ वीरु जिणराइ ।
रचनाकाल 'संवति पनर डक्याण, भद्दविसिय पखि पंचमी दिवसे, सक्कवारि स्वाति वृषे, जेउ तह जाणि वंभ णामेण । १२२ । '
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'नेमिश्वर बारहमास' –— इसमें श्रावण से आषाढ़ तक १२ महीनों में नेमि के तपस्वी जीवन के कारण उपन्न राजुल की विरह वेदना का वर्णन किया गया है । यह सं० १५८१ के बाद की रचना है । इसमें कवि ने अपना नाम बुचा लिखा है |
यथा 'आषाढ़ चडिया भणइ 'बूचा' नेमि अजउ न आइया । 2
श्रावण मास में अन्यत्र गमन न करने की प्रार्थना करती हुई विरहिणी कहती है
'ए रुति सावणो सावणि नेमि जिण गवणो न कीजै वे । सुणि सारंगा भाष दुसह् तनु खिणु खिणु छीजै वे ।
'विनवति राजुल सुणहु नेमि जिन गवउं ना करु सावणो । '
१. डा० क० च० कामलीवाल - कविवर बुत्रराज एवं उनके समकालीन कवि
पृ० २०
२. वही पृ० २३
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