SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसमें १२३ पद्य हैं जिसमें रंजिका, गीतिका, साटिक, रड्डा, गाथा, षट्पद, दूहा, पद्धडिया चंदाइण, त्रोटक आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है । इसमें नायक सन्तोष और लोभ प्रतिनायक है । एकबार भगवान् महावीर जब पावापुरी पधारे तो गौतम ने उनसे पूछा कि जीव लोभ से कैसे बचे तथा लोभ पर कौन और कैसे विजय प्राप्त कर सका ? महावीर बोले 'सुणहु गोइम कहइ जिणणाहु, यह सासणु विम्मलइ, सुणंत धम्मु भव बंध चुट्टहि । लोभ दुसइ इव जितयइ सन्तोखह परिसादि । " इसी प्रश्न का उत्तर इस रूपक में दिया गया है । इसकी भाषा मयणजुज्झसे परिष्कृत होते हुए भी अपभ्रंश एवं प्राचीनता के पुट से पूर्णतया मुक्त नहीं है । अकारान्त की प्रवृत्ति और गाथाओं का प्रयोग अपभ्रंश के अवशिष्ट प्रभाव का द्योतक है । इसमें कवि ने अपना नाम वल्हि बताया है, यथा 'यहु सन्तोखहु जय तिलक जंपिउ वल्हि सुभाइ । मंगल चौबीस संघ कहु. करइ वीरु जिणराइ । रचनाकाल 'संवति पनर डक्याण, भद्दविसिय पखि पंचमी दिवसे, सक्कवारि स्वाति वृषे, जेउ तह जाणि वंभ णामेण । १२२ । ' - 'नेमिश्वर बारहमास' –— इसमें श्रावण से आषाढ़ तक १२ महीनों में नेमि के तपस्वी जीवन के कारण उपन्न राजुल की विरह वेदना का वर्णन किया गया है । यह सं० १५८१ के बाद की रचना है । इसमें कवि ने अपना नाम बुचा लिखा है | यथा 'आषाढ़ चडिया भणइ 'बूचा' नेमि अजउ न आइया । 2 श्रावण मास में अन्यत्र गमन न करने की प्रार्थना करती हुई विरहिणी कहती है 'ए रुति सावणो सावणि नेमि जिण गवणो न कीजै वे । सुणि सारंगा भाष दुसह् तनु खिणु खिणु छीजै वे । 'विनवति राजुल सुणहु नेमि जिन गवउं ना करु सावणो । ' १. डा० क० च० कामलीवाल - कविवर बुत्रराज एवं उनके समकालीन कवि पृ० २० २. वही पृ० २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy