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मरु-गुर्जर जैन साहित्य मयण जुज्झ -यह अपभ्रंश से प्रभावित रचना है, उस समय काव्यरचना में अपभ्रंश का स्थान मरुगुर्जर ले चुकी थी किन्तु कुछ रचनाओं में प्राचीन रूढ़ काव्य भाषा का प्रयोग भी कवि यदा-कदा कर देते थे। यह एक रूपक काव्य है जिसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं कामदेव के युद्ध में काम पर तीर्थंकर की विजय दिखाई गई है। इसमें कुल १५९ पद्य हैं। इसमें विविध छन्द, गाथा. रड्डा, अडिल्ल. दोहा, कवित्त आदि का प्रयोग किया गया है। तत्कालीन प्रचलित उर्दू के शब्द फौज, नफीरी आदि भी प्रयुक्त हैं साथ ही उपज्जइ, णिवाणि, इक्कु आदि शब्दों में द्वित्त की प्रवृत्ति पंजाबी प्रभाव के कारण हो सकती है जिसके कारण इनकी भाषा को कुछ विद्वान् अपभ्रंश और कुछ डिंगल बताते हैं। इसमें कायारूपी दुर्ग में चेतन राजा, मंत्री मन, प्रवृत्ति-निवृत्ति नामक दो रानियाँ और मोह तथा विवेक नामक दो पुत्रों का रूपक बाँधा गया है। दोनों पुत्र मोह और विवेक में प्रतिस्पर्धा है । मोह का पुत्र कामदेव अपनी वसंत आदि की सेना लेकर विवेक के विजयार्थ चलता है लेकिन ऋषभदेव की धर्मपुरी नहीं जीती जा सकी। उसके सभी योद्धा-मद, कलह, लोभ आदि हार गये । इस प्रकार ऋषभदेव ने संयमपूर्वक काम को पराजित किया। इसकी भाषा का उदाहरण देखिये :
'जहन जरा न मरणु जत्थं पुणि व्याधिन वेयणु, जह न देह न नेह जोति मइ तह ठइ चेयणु । जह ठइ सुक्ख अनंत न्यान देसणा अवलोवहि,
कालु विणास इ सयलु सिद्ध पुणि कालहि खोवहि ।' इसमें रचनाकाल का उल्लेख किया गया है, यथा
'राइ विक्कम तणउं संवतु नवासिय पणरहस,
सरद रुत्ति आसवज वखाणि तिथि पडिवा सुकलु पखु ।' 'जय सन्तोष तिलक' भी एक रूपक काव्य है जो सं० १५९१ में लिखा गया । यह हिन्दी, पंजाबी से प्रभावित मरुगुर्जर की रचना है। यह हिसार में लिखी गई।
'सन्तोखह जय तिलउ जंपिउ हिसार नय मंझ में,
जे सुणहि भविय इक्क मनि ते पावहिं वंछिय सुख । १. डा० क० च० कासलीवाल - कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
पृ० ४५
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