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२८ मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४३३ शान्तिनाथ विवाहलो का विषय स्वयं स्पष्ट है। वासुपूज्य स्वामी धवल भी विवाहलो के प्रकार का ही उत्सव गीत है दो पंक्तियाँ देखिये :
'रच्यउ धवल जिम चारित्रि वखाण्यउ, जाणी गुरुमुखि मर्म, वा थिर पढउ गुणउ भवियण जण, जां वरतइ जिण धर्म ।२९।' प्रथमास्रवद्वारकुलक की दो पंक्तियां देखिये :'निर्मल मति करि समकित विरतिसू, पाप कर्म करउ दूरि,
अविचल पदवी रे पामउ वेहथी, भणइ विनयदेवसूरि ।९२।' 'अन्त काल आराधना फल' का अन्त इस प्रकार हुआ है:--- 'इणिभवि परभवि सुख धणा आवइ, ब्रह्म कहइं अविचल पद थापइ । अह आराधना जे जन करसइ, ते सुख संपदा निश्चइ बरसइ ।१२४।।
सुदर्शन सेठ चौ० में सुदर्शन का निर्मल चरित्र अंकित किया है। उसके शील की सराहना कवि इन शब्दों में करता है :
'ऋषिराय ब्रम्ह उलास शील तणा गुण वरणव्या, कीयो चरित्र प्रकाश सुदर्शन जी सेठ को। अधिको ओछो कह्यो होय तेहने मिच्छामि दुकडं, सूत्रा प्राकृत जोय जेहने अनुसार भाषियो।
शील तणो वखाण पढ़े सुणे नर जे सदा, पवित्र करे जीभ कान सुखपाव ते सासतां।'' इसकी भाषा में 'पवित्र करे जीभ कान सुख पावे' आदि शब्द हिन्दी के है। अत्यन्त सरल एवं बोलचाल की प्रचलित भाषा का प्रयोग कवि ने किया है। आपकी भाषा पर यत्र-तत्र, गुजराती का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है । 'अठारपाप स्थानपरिहार भाषा' में जैनशास्त्रों में वर्णितसम्यक्त्व का महत्त्व कवि ने देश भाषा में वर्णित किया है। कवि द्वारा भाषा शब्द भास के अर्थ में भी कई जगह प्रयुक्त किया गया है। ब्रह्म कृत आठ-दस भाष की सूचना श्री मणिलाल बकोरभाई व्यास ने दी है। 'उत्तराध्ययन' को भी इन्होंने भास ही कहा है, इसे जीवाजीव विमत्ती गीत भी कहा है । अठारदोष में जीववध, परनारीगमन आदि दोषों से बचने की चेतावनी कवि ने दी है यथा१ श्री मो० द० देसाई-० गु० क ० भाग ३ पृ० ६१०.६१३ २. वही भाग १ पृ० १५५
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