________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४३१ गिरनार गये । वहाँ रंगमंडण ऋषिके उपदेश से इन्हें वैराग्य हुआ और दीक्षा ले ली। वहीं पर पुण्यरत्न. साधुरत्न तथा पार्श्वचन्द्र रहते थे। उस समय गच्छ के आचार्य विजयदेवसूरि थे जिन्होंने वरदराज नाम से विजयनगर के राजा रामराजा के दरबार में दिगम्बरों को पराजित किया था और वहीं उत्सवपूर्वक उन्हें आचार्य पद प्रदान किया गया था। पार्श्वचन्द्र से विद्यापास करके ब्रह्मकुंवर जब खंभात पहुँचे तो विजयदेवसूरि बीमार थे। उन्होंने ब्रह्ममुनि को सूरिमंत्र देकर उनका नाम विनयदेवसूरि रखा। अनशन पूर्वक उनकी मृत्यु के पश्चात् ये पट्टधर हुए । चौमासे के पारणा के प्रश्न पर विनयदेवसूरि का गच्छ से मतभेद हो गया और सं० १६०२ में उन्होंने कड़आ के सहयोग से बुरहानपुर में नया गच्छ (सौधर्म गच्छ) स्थापित किया। सं० १६४६ में आपका स्वर्गवास हुआ । मनजी ऋषि ने 'विनयदेवसूरि रास' उसी समय लिखा था जो ऐतिहासिक रास संग्रह में प्रकाशित है। आप १६वीं-१७वीं शताब्दी के लेखक हैं। ऐसे कवि जो दो शताब्दियों में सूजनशील थे उन्हें पहले की ही शताब्दी में रखने का क्रम चलाया जा रहा है अतः आप की सभी प्रतिनिधि रचनाओं की सूचना १६ वीं शती के अन्तर्गत दी जा रही है। __रचना सूची-चारप्रत्येकबुद्ध चौ० सं० १५९७, सुधर्मगच्छपरीक्षा, सुदर्शनशेठचौपइ, अठारपापस्थानपरिहारभाषा, "जिन नेमिनाथ विवाहलु उत्तराध्ययननासर्वअध्ययनसंज्झाय, जिनप्रतिमास्थापन प्रबंध, सुमतिनागिलरास, अजापुत्र रास, पार्श्वनाथ स्तवन, आदीश्वर स्तवन, वंभणाधीश पार्श्वस्तवन, अन्तकाल आराधना, अहन्नक साधु गीत, अष्टकर्म विचार, चन्द्रप्रभ स्वामीधवल, संभवनाथ स्तव, भरतबाहुबलिरास, शांतिनाथ विवाहलु, वासुपूज्यस्वामीधवल आदि के अलावा सैद्धान्तिकविचार, चतपूर्वी व्याख्या आदि अनेक रचनाओं की सूचना भी देसाई ने दी है। जिनका परिचय आगे दिया जा रहा है
चार प्रत्येकबुद्ध चौपइ-भाषा के नमूने के लिए इसके प्रारम्भ और अन्त का छन्द दिया जा रहा है-. प्रारम्भ –'जिण चउवीसइ पइकमल, मनि धरि हर्ष नमेसु,
सुगुरु वचन सुभमंत्र जिं हीयडा माहि धरेसु । मूनिवर जो जग जाणीइ, प्रत्यय देखी बुद्ध,
मन आणंदइ वंदि करि कहिस्यउं तास प्रबन्ध ।' १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क. भाग १, पृ० १५२-५८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org