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४३० मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास और गच्छनायक पद सं० १५०१ में प्राप्त हुआ था । आप सं० १५४२ में स्वर्गवासी हए थे। पेथो का समय १६वीं शती का पूर्वार्द्ध हो सकता है। आपने 'पार्श्वनाथदसभवविवाहलो' (गा० २०६) की रचना इसी समय की होगी। इसकी प्राम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार है :
‘सरसति सामणि करू अ पसाउ, मुझ मनि अह ऊमाहिलु अ, घवल वधिइ बहू लागउँ ठाउँ, गायशूजिणह जीराउलु अ, मूल चरित प्रभ केरउं पास, भाविहिं भवीयण सांभलु अ,
सांभलता हुइ पुण्य प्रकाश, दसइ भवंतर देवना ।'१ पेथो उच्चपदासीन व्यक्ति था, इसका पद्य देखिये:
'कीध कवित विशालो, रूअडूअनइं रसालो,
पढ़त गणताहां सिधे, आवइ अविचल रिधि ।' इसे 'पार्श्वनाथ विवाहल' भी कहा जाता है। यह एक लोकप्रिय रचना थी। इसकी हस्त प्रतियाँ १६वीं शती के अन्त से ही मिलनी शुरू हो जाती है । श्री देसाई जी ने इसकी तीन प्रतियों का विवरण जै० गु० क० भाग ३ पृ० ४८४ पर दिया है।
भट्टारक प्रमाचन्द-आपने स्वयं मरुगुर्जरमें कुछ नहीं लिखा किन्तु सैकड़ों नई प्रतिलिपियाँ कराई और तमाम प्राचीन प्रतियों का जीर्णोद्धार कराया। इन प्रतियों को शास्त्र भंडारों में सुरक्षित रखवाकर जैन साहित्य की बड़ी महत्त्वपूर्ण सेवा की। इसलिए साहित्य संरक्षक के रूप में ये सदैव स्मरणीय रहेंगे।
ब्रह्ममुनि (विनयदेवसूरि)-आप विजयदेवसूरि के पट्टधर थे। पावचन्द्रगच्छीय साधुरत्न एवं पार्शचन्द्र के आप शिष्य थे । इन्होंने जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति और दशाश्रुतस्कंधटीका में अपने को चालुक्य वंश का राजपुत्र और साधुरत्न तथा पार्श्वचन्द्र का शिष्य बताया है। इन रचनाओं को विजयदेव सूरि ने देखा और सुधारा था। आप एक महान् आचार्य और उत्तम लेखक थे। आपका बचपन का नाम ब्रह्मकुंवर था। आपका जन्म सं० १५६८ में मालवा के आजणोठं नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिता चौलुक्य या सोलंकी राजा पद्मराय थे और माता का नाम सीता दे था। जब आप आठ साल के थे तभी माँ-बाप की मृत्यु हो गई और इनके काका कारोबार देखने लगे । अगले साल काका गुणसिंह इन्हें तथा इनके भाई धनराज को लेकर १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ. ५६
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