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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४२९ अन्त में न तो गुरु परम्परा मिली और न रचना काल इसलिए इनके सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। अन्त–'समुद्रविजय तनु गुणनिल उ, सेवकरइ जसु सुरनरवृद, पुनरतन मुनि विनवइ, श्रीसंघ सप्रसन श्रीनेमिजिणंद,
हुबलिहारी यादवा।'' इस उद्धरण से इतना तो निश्चित है कि इस कृति का लेखक पुनरतन (पुण्यरत्न) नामक कवि ही है, अब चाहे वह आंचलगच्छीय हो या किसी अन्यगच्छ का हो, या चाहे वह १६वीं के अन्त का हो या १७वीं के प्रारम्भिक चरण का, यह विवादास्पद विषय है।
आपकी दूसरी रचना निश्चय ही १७वीं शती की है अतः उसका विवरण वहाँ दिया जायेगा।
पुण्यलब्धि -आप पंडित राजहेम गणि के शिष्य थे । आपने सं० १६०० के आस-पास 'अनाथी चौपइ' (६१ कड़ी) नामक रचना का सृजन किया। आरम्भ में कवि ने राज हेमगणि को नमन किया है, यथा -
'सिद्ध सवेनई करू प्रणाम, जे पुण पामिउं उत्तम ठाम, साधु सवे नमुकरजोडि, भव भमिवा जिण लागी खोडि । अलीय वयण बोलाइं जेह, मिच्छाटुक्कड़ हो ज्यो तेअ,
अर्थ धर्म गत तत्व विशाल, भणतां सुणतां अतिहिसाल ।' इसकी अन्तिम दो पंक्तियाँ भी प्रस्तुत हैं :
उत्तम गुणे करी संज्जुत्त, गुप्ते गुप्तउ दंड विरत्त,
पक्षीनी परि हलुउ साहसी, भुगति मांहि ते विचरइं हसी ।६१।' इस रचना की मरुगुर्जर भाषा पर हिन्दी का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है। जैसे 'अर्थ धर्मगत तत्व विशाल' "अतिहि रसाल' पूरी पंक्ति ही हिन्दी की है। यह भाषा शैली इस बात का सबूत है कि १६वीं शताब्दी के अन्त और १७वीं शती के प्रारम्भ तक हिन्ही और राजस्थानी-गुजराती का मेलमिलाप अत्यधिक घनिष्ठ था और अलगाव की भावना रंचमात्र भी नहीं दिखाई देती।
पेथो-आप जंबू ग्राम वासी श्रीमाल जाति के श्रावक थे। आपके गुरु आंचलगच्छीय जयकेशर सूरि थे। सूरि जी को आचार्य पद सं० १४९४ में १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भा० १ पृ० २४३-२४४ २. वही भाग ३ पृ० ६४६ ३. वही
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