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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
४२७ स्तवन आदि का भी उल्लेख किया है, परन्तु उन सबका यहाँ विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं है ।' आपकी भाषा निःस्संदेह मरु गुर्जर है जिसपर राजस्थानी का कुछ प्रभाव विशेष प्रकट होता है क्योंकि आपका न केवल जन्म राजस्थान में हआ बल्कि आपका विहार क्षेत्र भी अधिकतर राजस्थान ही रहा, अतः रचनाओं की भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
पुण्यनंदि-खरतरगच्छके आचार्य जिनसमुद्रसूरि की परम्परामें (सागरचन्द्रसूरि> रत्न कीर्ति> समयभक्त) आप समयभक्तसूरि के शिष्य थे। जिन समुद्र सूरि को सूरिपद संवत् १५३० में मिला और वे संवत् १५५३ में स्वर्गवासी हुए थे । पुण्यनंदि ने इसी अवधि में अपनी प्रसिद्ध रचना 'रूपकमाला' लिखी, जो मात्र ३२ पद्यों की है. इस पर कई विद्वानों ने संस्कृत और मरुगूर्जर में टीकायें लिखी हैं। संवत् १५८२ में रत्नरंग उपाध्याय ने इसपर बालावबोध लिखा और सं० १६६३ में सुप्रसिद्ध कवि समयसुन्दर ने संस्कृत में चूर्णी लिखी। इसके अतिरिक्त पुण्यनंदि ने कुछ और रचनायें भी की जिनका संग्रह श्री अ० च० नाहटा के पास है।' ___ रूपकमाला शील की महिमा पर प्रकाश डालने वाली सरल मरुगुर्जर की लघु रचना है जिसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है :___ 'आदि जिणेसर आदिसउ, सरसति सण दाखि,
सीलतणां गुण गाइसु, तिहुयण सामिणि साखि । रूपकमाला के अन्त में कवि ने विषय के माहात्म्य एवं अपनी गुरु परम्परा पर प्रकाश डाला है अतः कुछ सम्बद्ध पद्य उद्धृत किए जाते हैं
'सबल शील महिमा निलउ कुशलसूरि सिरिपाट, श्री जिनसमुद्रसूरि सोहवइ खरतल गुरुकउपाट । कुशील उथापक सुशील संस्थापक सागरचंद, सूरि राय वयणायदी रयणाकीरति गणिचंद,
रूपक माला शीलनी पमणइ श्री पुण्यनन्दि ।' यद्यपि इसका निश्चित रचनाकाल ज्ञात नहीं हो सका किन्तु जिनसमुद्र सूरि के आचार्य काल में इस रचना का निर्माण होना निश्चित होने से यह १. श्री अ० च० नाहटा-जै० म० गु० क० पृ० १५ २. श्री अ० च० नाहटा-राजस्थानी सा० का मध्यकाल, परम्परा प० ६१ ३. श्री देसाई-जै० गु० क० भाग १ १० ६१ और भाग ३ पृ० ४९१
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