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________________ ४२६ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'केशिप्रदेशिबंध' आपकी एक छोटी कथात्मक कृति है जिसमें केशी द्वारा राजा परदेशी को प्रतिबोधित करने की घटना का वर्णन है - नमूना देखिये - 'प्रणमउं सिरिजिण पास आसपूरण जगतारक, बामाउरि हंस वर इकखागह नायक ।' तासु तणउ संतान हूअउ गरुअउ गुरुकेसी, प्रतिबोध्यउ जिणि हेलि सबल राजा परदेसी।' शताब्दी के अन्तिम वर्ष सं० १६०० की रचना 'खंधकचरित्र' की कुछ पंक्तियाँ भी अवलोकनीय हैं, यथा--- 'आदि जिण रिसह श्री वीर चउवीसमउ, भावि मो भविय जगदीश चउहुअ नमउं, हउं पुण प्रणमिय भणिसुखंदग चरी, गुरु मुखि संभल्य उ सुणउ आदर करी।' श्रावकविधिस्वाध्याय (१६०१) में श्रावकों को 'सम्यक्त्व' का महत्त्व बताया गया है । शत्रुजयस्तोत्र (४२ कड़ी) की भाषा का प्रवाह द्रष्टव्य है "पुडरीक गिरि मंडनराया करइं, सेव सुरनर वरराया, श्री पासचंद तुम्ह चरणे लागइ. बोधिबीज लाभ जिन मारगि लागइ।" काव्य रूपों की दृष्टि से अपने रास, चौपइ, स्तवन, कुलक, सज्झाय, संख्या वाचक पद्यबंध आदि नानारूपों का प्रयोग किया है, इनमें से संवर कुलक की पंक्तियाँ कुलक शैली के उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं "श्रावक सवि छंडी कुमत बिखंडी पालई जे जिन मत लहिय, ते दुर्गति वामइ शिवपुरि पामइ कर्म क्षय आठइ करिय, इम जाणइ भविया निर्मल रलिया संवरि धर्म करउ सहिय ॥' जैसा पूर्व निवेदन किया गया है आपका साहित्य संसार बृहद् है और उसके समग्र स्वरूप को इस सीमा में प्रस्तुत करना कदापि संभव नहीं है, अतः कुछ थोड़े से उद्धरणों के द्वारा उनकी भाषा और रचनाशैली की झलक प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। ____ कवि के रूप में आपका व्यक्तित्व जितना बड़ा है, गद्यकार के रूप में भी उससे तनिक भी कम नहीं है। श्री नाहटा जी ने इनकी अन्य रचनाओं, चौबीसी, गच्छाचारपंचाशिका, षड्विंशतिद्वारगर्भित वीर १. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क०, भाग ३, पृ० ५९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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