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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य ४२५ 'मण मनोरथ इम करे जे श्रावक सुविचार, जिम श्रावक तिम श्राविका त्तर तरे संसार ।' रूपकमाला सं० १५८६ राणकपुर में लिखी गई। इसमें कवि ने रचनाकाल आदि दिया है । रचना शैली काव्यात्मक है । 'संगरंगप्रबन्ध' में सत्संगति की महिमा का सुन्दर वर्णन किया गया है, यथा : 'साधु संगि जगि जसु विस्तरइ, साधुसंगि मन वंछित फलइ, साधुसंगि नय विनयविवेक , साधसंगि गुण थाइ अनेक ।। इणि परि दुष्ट संग परिहरउ, साधसंगि मनि आदर करउ, जिम मन वंछित सुहफल हवइ. हरषज्ञ श्रीपासचंद बीनवइ ।' इसमें दोहा और चौपाई तथा छन्द का प्रयोग किया गया है । एकाध संस्कृत के श्लोक भी हैं। इनकी आराधना, वीनती नामक कई छोटी-मोटी रचनायें 'प्रातःस्मरणीयप्रकरणसंग्रह' में प्रकाशित हैं । आराधना (मोटी, सं० १५९८ की कुछ पंक्तियाँ देखिये : 'श्री जिनचरण जुयले प्रणमेसु, सुगुरु नाम हियडइ समरेसु । कहइसु संखेपिइं आराधना, भविक जीव सुखसाधना।' इनकी एक रचना 'मुहपत्तिछत्रीसी' साम्प्रदायिक विषय के विवेचन से संबन्धित है। जिसमें उन्होंने 'मुहपत्ति' पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इसके उद्धरण की आवश्यकता नहीं है । वस्तुपालतेजपालरास (सं० १५९७) इनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक रचना है। इसमें प्रसिद्ध मंत्रीद्वय का इतिवृत्त वर्णित है। इन भाइयों का विवरण अन्य प्रसंग में पहले भी आ चुका है अतः कथा विस्तार की अपेक्षा नहीं है । भाषा के नमूने के लिए इसके आदि-अन्त के पद्य दिए जा रहे हैं :आदि--'जिण चुवीस इ चलण नमेवीय, अनई सूयसामिणि सरसति देवीय सहि गुरु पाय पसाउलइ । रास बंधि बिहु बंधव केरू, काई कीजइ चरित (कवित्त) नवेरू, वस्तपाल तेजपाल तणउ ।' अन्त'-- जीणउ अउ रासु साभल उ, जाणे तेह धरि सुंरतरु फलीउ, पासचंद सूरि इम बोलते, भणइ सुण इ ते सुख लहंति ।। १. श्री मो० देसाई-जै० गु० क०, भाग ३, पृ० ५९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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