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________________ ४२४ मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास साधुवंदना-इसमें साधुओं की वंदना हैं। इसका प्रारम्भिक छंद देखिये : 'रिसह जिण पमूह च उवीस जिणवंदिये, हेलिसंसारना दुख सवि छिडिये, पुंडरीकादि गणधार मुणि साहुणी, सारपरिवार जगिजासु महिमा घणी । अन्तिमछन्द - 'इमि जनवाणी जोइ जाणी हियइ आणी मइ भण्यां, भवतरण तारण दुखवारण, साधु गुरु मुखि जे सुण्यां। इम अच्छइ मुनिवर जोय होस्य इ. कालि अनंतइ जे हुआ, ते सत्त छंदिह श्री पासचंदइ मुनि आणंदइ संथुआ।८८।' इन की भाषा में गेयता, लय, प्रवाह उच्चकोटि का दिखाई पड़ता है । भाषा स्वच्छ और सरल तथा प्राचीनता के पुट से मुक्त है। गुरु छत्रीसी में गुरु को श्रद्धापूर्वक प्रणाम निवेदित है । आपकी कुछ रचनायें शतक संज्ञक हैं जैसे दूहा शतक, ऐषणा शतक आदि। इनमें से दूहा शतक का एक दूहा देखिये : 'जगन्नाथ जगमात, कृपास्पद कृपाकर, शरण्य भक्त साधार, श्रुण विज्ञप्तिका मम ।' इसकी भाषा संस्कृत है। संदेश और काव्य दोनों दृष्टियों से ऐषणा शतक महत्त्वपूर्ण है अतः उसका एक नमूना दिया जा रहा है : 'श्री जिन शासन समव उइं अवर न शासन कोइ, कहि किम हीरागर तुल इ, जगि लवणागर होइ।' आपका संस्कृत पर अच्छा अधिकार प्रकट होता है। आपकी रचनाओं में स्तवनों की संख्या भी पर्याप्त है। उनमें से ३४ अतिशय स्तवन की अंतिम चार पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं : - 'इम चार अतिशय जनम साथइ जाव जीविय ते रहे, इग्यार अतिशय कर्मक्षय थी, हती गीतारथ कहे। उगणीस सुरकृत तीसच्यारे, अह साधारण भण्या, सर्व जिन ने भगति भावई पासचंदिइं संथुण्या। आपकी दो मनोरथमालायें - चारित्रमनोरथमाला प्रकाशित हो चुकी है । श्रावकमनोरथमाला में श्रावकों को संसार समुद्र पार करने का सुगम उपाय बताया गया है, जैसे१. श्री मो० द० देसाई-जै० गु० क० भाग १ पृ० १४० १४८ और भाग ३ पृ० ५८५ से ५९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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