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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसकी अन्तिम पंक्तियों में रचना-समय आदि दिया गया है :
'दान ऊपर कइन्न चौपइ संवत पनर त्रिसटे थइ, भाद्रवदि अठमि तिथि जाण, सहस किरणदिन आणंद आणि । पद्मसागर सूरि इमि भणंत, गुणे तिहि काज सरंति,
ते सवि पामे वछित सिद्धि, घर निरोग घरे अविचलरिद्धि ।' आप म रुगुर्जर भाषा के एक सामान्य जैन कवि हैं।
पद्मश्री-आपने सं० १५४० में 'चारुदत्तचरित्र' नामक चरित्र काव्य लिखा । इसके मंगलाचरण में सरस्वती की वन्दना की गई है :
'देवि सरसति देव सरसति अति वाणि, आपु मनि आनन्द करि धरीय भाव भासुर चित्तिहिं । पय पंकज पणम् सदा, मयहरणी भोलीय भत्तिहिं । चारुदत्त कम्मह चरी, पणिसु तुम्ह पसाय,
भाविया भाविहिं सांभलु, परहरि परहु पमाय ।१।' इसमें प्राय: चौपइ छन्द का प्रयोग हुआ है। इसकी भाषा और रचना शैली के उदाहरणस्वरूप दो पंक्तियाँ और उद्धत की जा रही हैं :
'सुख संसारि भोगव्यां घणां, फललीधां मनुय जनमह तणां, अंतकालि अणसण उच्चरइ, देवलोकि सुरवर अवतरइ ।२५२।
इसका अन्तिम छन्द इस प्रकार है :'भणइ भणावइ भासुर भत्ति, अथवा जेउ सुणइ निजचित्ति, तेह घरि नवनिधि हुइ निरमली, भणइ पदमशीय वंछितफली ।'
सामान्यतया जिस प्रकार अन्य जैन काव्यों का अन्त होता है उसी प्रकार इसमें भी अंतत: चारुदत्त संयम धारण करके उत्तम चरित्र का उदाहरण प्रस्तुत करता है और स्वयम् उच्चलोक को प्राप्त करता है।
पातो-(पातु, परबत) पातु या परबत नाम से एक रचना 'छोती. मिथ्यात्वपरिहारकुलसंझाय' ६४ कड़ी की प्राप्त है, जिसमें कवि ने मिथ्यात्व के परिहार का संदेश दिया है, यथा
'मन वचन काया सुधका, निसा भोजन हिंसा परहरु ।
पांचि इंद्री तम्हो वसि करु, पवित्र पण जो सधलिकरु । ६३॥ १. दे० जे० गु० क० भाग १, पृ० १११ २. वही
भाग ३, पृ० ५३५ ३. वही
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