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मरु- गुर्जर जैन साहित्य
विद्याविलास की कथा भी जैन समाज में सुपरिचित है। इसकी भाषा राजस्थानी प्रधान मरुगुर्जर है । इनके किसी अन्य रचना की सूचना नहीं है ।
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नेमिकुञ्जर - आपका एक नाम 'सुन्दरराज' भी मिलता है । आपका पुकारने का प्रारम्भिक नाम 'खोटु' था और बाद का प्रचलित नाम नेमिकुंजर है । आपके गुरुपुण्यसुन्दर थे या राजसुन्दर यह भी विवादास्पद है । आपकी एक रचना 'गजसिंहायचरित्ररास' या 'गजसिंहकुमारचौ० या गजसिंहास नामसे मिलती है। इसके चौथे खण्ड में रासकर्त्ता का नाम राजसुन्दर है परन्तु तीसरे खण्ड के अन्त में नेमिकुंजर नाम मिलता है। मुनि गुलाबविजय भंडार की प्रति के तीसरे और चौथे खण्ड के अन्त में रासकर्त्ता का नाम कुंजर ही मिलता है । दोनों प्रतियों में रचना काल सं० १५५६ मिलता है, यथा :
'संवत पनर छप्पन्न सही, प्रथम जेठ पूनिम दिनलही, बुद्धवार अनुराधा माँहि कीयो चरित ओ मन उछाहि ।
इसमें कवि ने पाठकों को नवरस - नवरंग की उपलब्धि का आश्वासन दिया है, यथा
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'नवरसि नवरंगि व्रणवउं, शास्त्र माहि जो होइ, बार कथा रस व्रणवउं, तिणि सुणउ सहु कोइ ।
इसके चारों खण्डों की सम्पूर्ण छन्द संख्या ६१५ बताई गई है । इसके सभी खण्डों की समाप्ति पर यह पंक्ति मिलती है
'तो कवि कथा क्षणतंरि कहइ या कथा क्षणान्तरि तो कवि कहइ ;
इसमें आयोध्या के राजा गजसिंहराय के शील का निरूपण किया गया है । उन्होंने बड़ा राज्य, वैभव कमाया, कई सुन्दरियों से विवाह किया और अन्त में तपस्या पूर्वक भत्र बन्धन से मुक्त हुए । इसका प्रारम्भ पार्श्व की वंदना से इस प्रकार हुआ है :
'पास जिणेसर पय नमी, तेवीसमो जिणंद, ओ सुष संपति दीयइ पणमइ सुरनर इंद । कासमीर मुखमंडणी, समरी सरसति माय, शीलतणो गुण व्रणवउं, गावउं गजसिंघ राय । '
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१. श्री मो० द० देसाई - जै० गु० कवि - भाग १, पृ० ९५- १०० तथा भाग ३ ०५२४-२६
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