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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास माध्यम से लोकप्रिय बनाने का उत्तम प्रयास किया है। इनके स्तवनों और गीतों की भाषा में पर्याप्त गेयता और मृदुता प्राप्त होती है।
नन्दिवर्धनसूरि -(राजगच्छ) आपकी एकमात्र कृति 'यादवरास' की रचना सं० १५८८ में हुई ।' अन्य विवरण उपलब्ध नही हो पाया है।
नयसिंहगणि-वडतपगच्छीय धनरत्नसूरि के प्रशिष्य एवं मुनिसिंह के शिष्य नयसिंह ने पावापुर में 'चतुर्विंशतिजिनस्तुति' की रचना की। धनरत्नसूरि के गुरु लब्धिसागरसूरि ने सं० १५५७ में 'श्रीपालकथा' लिखी थी, इसलिए यह कवि १६ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण का हो सकता है। इस अनुमान के लिए कोई अन्तक्ष्यि उपलब्ध नहीं है। यह रचना पावापुर में की गई और गुर्जर भाषा में है इसलिए इसे मरुगुर्जर जैन साहित्य में स्थान देना वांछित है। इसकी भाषा पर गुजराती का अधिक प्रभाव स्वाभाविक है। इसका कोई उद्धरण प्राप्त नहीं हो सका, अतः यह निष्कर्ष श्री देसाई के आधार पर दिया गया है।
नरपति-यह कवि संभवतः जैनेतर है क्योंकि इन्होंने अपनी कृति 'तंत्रबत्रीसी' (सं० १५४५) का मंगलाचरण लम्बोदर गणेश की वंदना से प्रारम्भ किया है यथा'लम्बोदर कवि शय शय धरंति, हंसवादन ते मुखि वशंति, अति आवलइ मुरति गंम, विवेकी नर तिहां करू प्रणाम ।
X कविता शारदा तणु प्रणाम, नंद वत्रीसी करु वखाण,
संवत पनरसि पंचताला, तिथि सतिमनि मंगलवार ।"3 नारी निंदा ( निस्नेहपरिक्रम) और नारी प्रशंसा (स्नेह परिक्रम ) के उद्धरण आगे दिए जा रहे हैं। निस्नेह परिक्रम की पंक्तियाँ :
'नारी छेहा नवि पडई, नर छेहानी खोड,
पंथ न हारइ रे हिया, पंथि हारइ कोडि ।" रास्ता नहीं थकता, राही थक जाता है अतः नारी की भोगलिप्सा ठीक नहीं है। १. श्री मो० द. देसाई-जै० गु० क० भाग ३ पृ० ५७९ २. वही भाग १ पृ० १७२ ३. वही भाग १ १० ८८-८९ भाग ३ पृ. ७९४, ५१४
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