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मरु-गुर्जर जैन साहित्य धर्मसिंहगणि-आप तपागच्छीय आनन्दविमलसूरि के शिष्य थे। आपने 'दीवालीरास' और 'विक्रमरास' लिखा, जिसकी सूचना श्री देसाई ने जै० गु० क०-भाग १, पृ० १६५ पर दिया है किन्तु इस कवि का विवरण तथा रचनाओं का परिचय और उदाहरण आदि कुछ नहीं दिया है, अतः इनके सम्बन्ध में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। आनन्दविमलसूरि सं० १५७० में आचार्य पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे । अतः इतना निश्चित है कि ये रचनायें १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की हैं।
धर्मसुन्दर-आप कक्कसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १५०४ खयनगर में 'श्रीपालप्रबन्ध' की रचना की थी। कवि ने मंगलदायक महापुरुषों में श्रीपाल की गणना की है, यथा
'पहिलउ मंगल सवि अरिहंत, बीजइ सिद्धचक्र जयवंत,
त्रीजउ विमलदेव सुविशाल, चउथउ मंगल राउ श्रीपाल । यह रचना उसने तत्कालीन राजा के मन्त्री के आग्रह पर की थी। 'राजा मंत्रि तणइ आग्रहिइं, करिउ कवित्त भवियण संग्रहिइ। सुणता संपद संघनइ मिलिउ, भणतां गुणतां अफला फलिउ ।
यह एक प्रबन्ध काव्य है जिसका नायक उदात्त चरित्र एवं शीलयुक्त मंगलकारी श्रीपाल है। इस विषय पर कई रास, चौपाई आदि जैन कवियों ने लिखी हैं। रचना का स्थान और समय का उल्लेख कवि ने इस रास की इन पंक्तियों में किया है
‘खयनयर वरि संवत पनर, आस्ते मासि वरिस चडोतर,
रच्यउ अतउ श्रीपाल प्रबन्ध, नंद उ तां जां ससिहर सिंधु ।' रास के ६८वें छन्द ( त्रुटित ) में कवि ने गुरु का स्मरण किया है, यथा
... ... .. कक्कसरि गणधार भणइ धर्मसुन्दर उवझाय, रिद्धि हुस्यइ सिद्धचक्र पसाय ।' रचना में श्रीपाल के चरित्र के माध्यम से सिद्धचक्र का प्रभाव भी बताया गया है । भाषा सामान्य मरुगुर्जर है।
नन्नसूरि -कोरंटगच्छीय सर्वदेव सूरि आपके गुरु थे। आपने सं० १५४४ में 'विचार चौसठी'; सं० १५४८ में 'गजसुकुमारराजर्षिसज्झाय', १. श्री मो० द० देसाई-जे० गु० क० भाग ३ खंड २ पृ० १४८८-८९
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